September 27, 2008

नवरात्रि: स्रोत की ओर एक यात्रा


पूज्य श्री श्री रविशंकर द्वारा

नवरात्रि का त्योहार अश्विन(शरद) की शुरुआत में और चैत्र (वसंत) की शुरुआत में प्रार्थना और उल्लास के साथ मनाया जाता है. यह काल आत्म निरीक्षण और अपने स्रोत की ओर वापस जाने का समय है. परिवर्तन के इस काल के दौरान, प्रकृति भी पुराने को झड़ कर नवीन हो जाती है; जानवर सीतनिद्रा में चले जाते हैं और बसंत के मौसम में जीवन वापस नए सिरे से खिल उठता है।
वैदिक विज्ञान के अनुसार, पदार्थ अपने मूल रूप में वापस आकर फिर से बार बार अपनी रचना करता है। यह सृष्टि सीधी रेखा में नहीं चल रही है बल्कि वह चक्रीय है, प्रकृति के द्वारा सभी कुछ का पुनर्नवीनीकरण हो रहा है - कायाकल्प की यह एक सतत प्रक्रिया है. तथापि सृष्टि के इस नियमित चक्र से मनुष्य का मन पीछे छूटा हुआ है । नवरात्रि का त्यौहार अपने मन को वापस अपने स्रोत की ओर ले जाने के लिए है।
उपवास, प्रार्थना, मौन और ध्यान के माध्यम से जिज्ञासु अपने सच्चे स्रोत की ओर यात्रा करता है। रात को भी रात्रि कहते हैं क्योंकि वह भी नवीनता और ताज़गी लाती है। वह हमारे अस्तित्व के तीन स्तरों पर राहत देती है – स्थूल शरीर को, सूक्ष्म शरीर को, और कारण शरीर को। उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थ से मुक्त हो जाता है, मौन के द्वारा हमारे वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है, और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराइयों में डूबकर हमें आत्मसाक्षात्कार मिलता है।
यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है। नवरात्रि आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता), शुम्भ-निशुम्भ (गर्व और शर्म) और मधु-कैतभ (अत्यधिक राग-द्वेष) को नष्ट किया जा सकता है। वे एक दूसरे से पूर्णत: विपरीत हैं, फिर भी एक दूसरे के पूरक हैं। जड़ता, गहरी नकारात्मकता और मनोग्रस्तियाँ (रक्तबीजासुर), बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुँधली दृष्टि (धूम्रलोचन्)को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है।
नवरात्रि के नौ दिन तीन मौलिक गुणों से बने इस ब्रह्मांड में आनन्दित रहने का भी एक अवसर है। यद्यपि हमारा जीवन इन तीन गुणों के द्वारा ही संचालित है, हम उन्हें कम ही पहचान पाते हैं या उनके बारे में विचार करते हैं। नवरात्रि के पहले तीन दिन तमोगुण के हैं, दूसरे तीन दिन रजोगुण के और आखिरी तीन दिन सत्त्व के लिये हैं। हमारी चेतना इन तमोगुण और रजोगुण के बीच बहती हुई सतोगुण के आखिरी तीन दिनों में खिल उठती है। जब भी जीवन में सत्व बढ़ता है, तब हमें विजय मिलती है। इस ज्ञान का सारतत्व जश्न के रूप में दसवें दिन विजयदश्मी द्वारा मनाया जाता है।
यह तीन मौलिक गुण हमारे भव्य ब्रह्मांड की स्त्री शक्ति माने गये हैं। नवरात्रि के दौरान देवी माँ की पूजा करके, हम त्रिगुणों में सामंजस्य लाते हैं और वातावरण में सत्व के स्तर को बढ़ाते हैं।
हालांकि नवरात्रि बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनायी जाती है, परंतु वास्तविकता में यह लड़ाई अच्छे और बुरे के बीच में नहीं है। वेदांत की दृष्टि से यह द्वैत पर अद्वैत की जीत है। जैसा अष्टावक्र ने कहा था, बेचारी लहर अपनी पहचान को समुद्र से अलग रखने की लाख कोशिश करती है, लेकिन कोई लाभ नहीं होता। हालांकि इस स्थूल संसार के भीतर ही सूक्ष्म संसार समाया हुआ है, लेकिन उनके बीच भासता अलगाव की भावना ही द्वंद का कारण है। एक ज्ञानी के लिए पूरी सृष्टि जीवन्त है जैसे बच्चों को सबमें जीवन भासता है ठीक उसी प्रकार उसे भी सब में जीवन दिखता है। देवी माँ या शुद्ध चेतना ही सब नाम और रूप में व्याप्त हैं। हर नाम और हर रूप में एक ही देवत्व को जानना ही नवरात्रि का उत्सव है। अतः, आखिर के तीन दिनों के दौरान विशेष पूजाओं के द्वारा जीवन और प्रकृति के सभी पहलुओं का सम्मान किया जाता है।
काली माँ प्रकृति की सबसे भयानक अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति सौंदर्य का प्रतीक है, फिर भी उसका एक भयानक रूप भी है। इस द्वैत यथार्थ को मानकर मन में एक स्वीकृति आ जाती है और मन को आराम मिलता है।
देवी माँ को सिर्फ बुद्धि के रूप में ही नहीं जाना जाता, लेकिन भ्रांति के रूप में भी; वह न सिर्फ लक्ष्मी (समृद्धि) हैं, वह भूख (क्षुधा) भी और प्यास (तृष्णा) भी हैं। सम्पूर्ण सृष्टि में देवी माँ के इस दोहरे पहलू को पहचान कर एक गहरी समाधि लग जाती है। यह पच्छम की सदियों पुरानी चली आ रही धार्मिक संघर्ष का भी एक उत्तर है। ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म के द्वारा अद्वैत सिद्धि प्राप्त करी जा सकती है अथवा इस अद्वैत चेतना में पूर्णता की स्थिति प्राप्त करी जा सकती है।

September 21, 2008

चित्र का कमाल - हसन हेलिलियन

हसन एक बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक हैं । युवावस्था में वे ईरान में क्रांतिकारी थे। बाद में वे कैनाडा चले गये और वहाँ टैक्सी चलाते हैं।

सारा दिन काम करने के बाद मुझे, सुबह सुबह एक ग्राहक मिला। उसे काफ़ी दूर तक यात्रा करनी थी पर वह केवल पचास डॉलर ही देने को तैयार था। मैंने उसे बताया कि ऐसा करना मेरे लिये सम्भव नहीं था और मुझे मीटर तो चालू करना ही पड़ेगा। वह उस समय मान तो गया, पर जैसे ही हम लोग हाईवे पर पहुँचे, वह मुझे गालियाँ देने लगा। मुझे गुस्सा आ गया और मैंने गाड़ी रोक दी। वह एक पल के लिये शांत हो गया, फिर उसने बंदूक निकाली और कहा ''मैं तुम्हे गोली मार सकता हँ, तुम्हे जान से मार सकता हँ, मुझसे गड़बड़ न करो।''

एक पल के लिये तो मैं भय से जड़ हो गया। मुझे अपने माथे पर पसीने की बूंदें व सीने में जकड़न का एहसास हुआ। तभी मेरे मन में एक दृढ़ भावना उठी कि मुझे कोई हानि नहीं पहुँच सकती, क्योंकि मेरे गुरु हमेशा मेरे साथ हैं। मैंने मन ही मन एक प्रार्थना की।

वह आदमी मुझ पर लगातार चिल्ला रहा था, तभी उसकी निगाह डैश बोर्ड पर गुरुजी के चित्र पर पड़ी। वह मन ही मन कुछ बुदबुदाया और फिर शांत हो गया। कुछ समय बाद उसने मुझसे पूछा ''यह आदमी कौन है?''। मैं मुड़ा और सीधा उसकी आँखों में देखा, फिर बोला ''यह मेरे गुरु हैं।'' अचानक ही वह नरम पड़ गया, उसने अपने हाथ जोड़े और पहले चित्र को फिर मुझको प्रणाम किया। उसने यह कई बार किया और बोलता रहा ''मैं बहुत शर्मिन्दा हँ।'' गंतव्य पर पहँच कर उसने न केवल मुझे पूरा किराया दिया बल्कि, मुझे काफ़ी बख्शीश भी दी।

September 19, 2008

धड़कन चलती रही............ -डॉ. रमोला प्रभु

मेरीलैण्ड, संयुक्त राज्य अमेरीका की डॉ. रमोला प्रभु (एम.डी.) सुदर्शन क्रिया के प्रभावों पर होने वाले चिकित्सा अनुसंधानों से सक्रिय रूप से जुड़ी हुई हैं।

एक बार गुरुजी दोपहर में वांशिगटन से लॉस ऐंजिलीस जाने वाले थे। मेरे पति गणेश को भोर के समय गुरुजी के साथ क्रिया करने की अनुमति मिल गयी थी जिसे लेकर वे काफ़ी उत्साहित थे। डरते हुए उन्होंने पूछा कि क्या वे गुरुदेव के दिल की धडकन को क्रिया के दौरान नाप सकते है ? उन्होंने आधे घंटे तक, क्रिया के दौरान, गुरुजी के दिल की धड़कन मापी और बाद में मशीन को गुरुजी के शरीर से अलग कर गाड़ी में रख दिया, क्योंकि सभी लोग हवाई अड्डे जा रहे थे। शाम को मैंने उनसे सुबह के परीक्षण के विषय में पूछा तो पता चला कि वे मशीन को कमरे में ही भूल आये थे। वे भागे-भागे दफ़तर गये और उनके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही जब उन्होंने देखा कि मशीन तब भी चल रही थी, मानो गुरुजी से अभी भी जुड़ी हुई हो। तभी अचानक, ठीक सात बजे, मशीन बंद हो गई।
जब गणेश ने क्रिया के दौरान गुरुजी की धड़कन का ग्राफ देखा तो पाया कि गुरुजी को धड़कन पहले 40 फिर 20 प्रति मिनट की दर पर आ गई थी और अंत में 20-30 सेकंडो तक तो शून्य हो गई (बंद हो गई)। तीन बार ऐसा हुआ कि क्रिया के दौरान 20-30 सेकंड के लिये गुरुजी की धडकन बंद हो गई। गणेश ने उत्साहित हो कर गुरुजी को अपने एक मित्र के मोबाइल पर फ़ोन करके पूछा कि सात बजे क्या हुआ था ? गुरुजी हँसे और बोले ''अरे, सात बजे मैं लॉस एंजिलीस पहँचा था।''

रहस्यमय व्यक्ति:-
मेरा प्रतिदिन अब जीवन के चमत्कारों से भर गया है। अच्छी तरह याद है वे दिन जब मेरा जीवन आषारहित व दु:ख से भरा था। उस समय बर्फ पर फिसल जाने से लगी चोट से मुझे अपने व्यक्तिगत जीवन के विषय में चिंतन करने का समय मिला। मैंने निष्चय किया कि मुझे अपने व्यस्त जीवन से कुछ विश्राम लेना होगा। उसी दौरान गुरुदेव की षिक्षा से मेरा परिचय हुआ।

मेरा पीठ-दर्द लगभग पूरी तरह से ठीक हुआ और मेरे चिड़चिड़ेपन में काफ़ी कमी आयी। गुरुदेव ने मुझे जीने का एक मकसद व जीवन के हर पक्ष के मूल्य को समझना व उचित सम्मान देना सिखाया। मेरे जीवन का हर क्षण उनके प्रति एक अर्पण बन गया।
यांति और उल्लास से जीवन का हर क्षण चमक उठा। अभी भी मुझे याद है जब न्यू यॉर्क में सुबह चार बजे फ़ोन की घंटी बजी थी। फ़ोन मेरीलैण्ड के दुर्धटना संकाय की एक नर्स का था। उसने बताया कि हमारे बेटे को एक कार दुघर्टना में कनपटी पर बहुत गहरा घाव लगा था और उसका operation करना पड़ा था। नर्स ने हमें विष्वास दिलाया कि हम बड़े भाग्यषाली माता-पिता हैं और अपने बेटे को घर ले जा सकते हैं। हमें तो इस बात पर विष्वास ही नहीं हो रहा था और हम बस काँपते हुए सुनते रहे। मेरे पति और दोनों बेटियाँ जिस दिन हमारे बेटे गोकुल को घर लाए उसी दिन गुरुजी न्यू यॉर्क पधारे।
आष्चर्यजनक रूप से, जिन लोगाें को गुरुजी को लेने आना था उन्हें आने में बहुत देर लगी और मैंने अपने आपको गुरुदेव के साथ हवाई-अड्डे पर अकेला खड़ा पाया, जैसा मैं चाह रही थी इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती उससे पहले गुरुजी बोले ''गोकुल का ऐक्सिडेंट हो गया न ? चिंता न करो, सब कुछ ठीक हो जायेगा।'' मैं तो बस रो पड़ी।
बाद में गोकुल ने बताया कि एक गाड़ी गलत दिषा में उसकी ओर आ रही थी। घना अंधेरा होने के कारण उससे बचाने की कोषिष में वह एक खम्भे से टकरा गया। उसके शरीर का दाहिना हिस्सा पूरी तरह खून से तर हो गया था। जैसे ही वह उठने की कोषिष करता, चक्कर खाकर गिर पड़ता था। तभी कहीं से एक आदमी आया और उसने गोकुल से पूछा कि क्या उसे मदद की जरूरत है ? कोई गाड़ी नहीं, कोई रोषनी नहीं, कोई और आवाज़ नहीं, बस यही आदमी जो मदद की पेषकष कर रहा था। जल्दी ही पुलिस आ गई और गोकुल को हेलिकॉप्टर द्वारा अस्पताल ले जाया गया।
मैंने अगले दिन पुलिस स्टेषन से उस आदमी के बारे में जानना चाहा तो वे बोले कि वहाँ तो कोई भी नहीं था, और किसी ने फ़ोन भी नहीं किया था '' उस अंधकार में वह कौन था जिसने गोकुल की सहायता की ? मुझे तो किसी उत्तर की आवष्यकता नहीं थी और गुरुजी की मेरे परिवार के ऊपर कृपा पर मेरे विष्वास की पुष्टि हुई।

रोगों का उपचार:-
कुछ वर्ष पूर्व मेरी चाची के गले में एक बहुत बडा टयूमर हो गया। डॉक्टरों को समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी जड़ कहाँ है, जिससे उन्हें पूरे शरीर में रेडियेषन व कीमोथेरेपी करवानी पड़ी। डॉक्टरों ने उन्हें जीने के लिये केवल 6 महीने का ही समय शेष है, ऐसा बताया। मेरे चाचा और चाची ने यूरोप में अपने पोते-पोतियों के साथ कुछ समय बिताने का निष्चय किया। मैंने उनसे अमरीका में हम लोगों से मिलने आने को कहा। वे बाल्टीमोर आये। उसी दौरान हमारे घर पर एक बेसिक कोर्स शुरू होने जा रहा था। उन दोनों ने वह कोर्स किया। सुदर्षन क्रिया के दौरान मेरी चाची गले में जलन की षिकायत करती थीं, पर किसी तरह उन्होंनें उस कोर्स को पूरा किया। उसके बाद वे दोनों भारत लौट गये। सात साल बीत चुके है, मेरी चाची जीवित और स्वस्थ है और नियमित रूप से क्रिया करती हैं। आजकल वे अपने इलाके के गरीब बच्चों के लिये एक स्कूल चलाती हेैं।
केटी (असली नाम गुप्त रखा गया है), एक महिला जो कि पचास साल के लगभग आयु की हैं, को 'सिस्टेमिक लूपस' की बीमारी थी। लगभग तीस वर्षो से वे इस बीमारी से पीड़ित थीं जिसके फलस्वरूप उनका शरीर जैसे खोखला हो गया था। उनके दोनों गुर्दे खराब हो चुके थे और ऑपरेषन कराके उन्होंने एक गुर्दा प्रतिरोपित कराया था। इसी प्रतिरोपित गुर्दे में उनका जीवन चलता था। उनके शरीर के सभी महत्वपूर्ण जोड़, धातु अथवा प्लास्टिक के अंगो द्वारा बदले गये थे (दोनाें ऐड़ियाँ, दोनाें कूल्हे, दोनों घुटने, दोनों कलाइयाँ)। बाल्टीमोर के शेरटन होटल में जब गुरुजी एक वार्ता दे रहे थे तो केटी उन्हें सुनने वहाँ गई। उसके एक हफ्ते बाद उन्होंने बेसिक कोर्स किया और एक महीने बाद कैनडा में गुरुदेव के सान्निध्य में एडवांस्ड कोर्स भी किया। इससे उन्हें कुछ लाभ अवष्य हुआ होगा क्योंकि इसके बाद उन्हाेंने बहुत से एडवांस्ड कोर्स किये और फिर एक डी.एस.एन. कोर्स भी किया। समकालीन चिकित्सा विज्ञान के अनुसार यदि देखा जाये तो केटी को दी जाने वाली दवाआें के साइड इफेक्ट से ही उन्हें पंगु होकर बिस्तर पकड़ लेना चाहिये था। परंतु गुरु कृपा व नियमित साधना से वह आज काम पर जाती है और एक भी सत्संग नहीं छोड़ती हैं।
डॉन नामक एक व्यक्ति को धूम्रपान व मद्यपान की बुरी लत थी। वे किसी की भी बात नहीं सुनते थे और अपनी लत नहीं छोडते थे। एक दिन गॉल्फ खेलते वक्त उन्हें एक बड़ा दौरा पड़ा और वे वहीं गिर गये। उसके बाद वे अपनी नौकरी छोड़ अपनी पत्नी व जवान बेटे के साथ कैलिफ़ोर्निया में रहने आ गये। कुछ महीनाें बाद उन्हाेंने फ़ोन करके कहा कि वे उस ''साँस वाली चीज़'' को सीखना चाहते हैं। उनके आधे शरीर को लकवा मार चुका था और वे किसी तरह अपनी पत्नी के साथ कोर्स करने पहुँचे। कुछ सप्ताह बाद डॉन ने फ़ोन करके बताया कि वे चलने लगे हैं। इसके एक महीना बीतने के बाद डॉन की पत्नी ने फ़ोन किया, उनकी खुषी की सीमा न थी। डॉन ने धूम्रपान और शराब छोड़ दिये थे, वे फिर से गॉल्फ खेलने लगे थे।

September 17, 2008

श्री श्री और SIMI -एक संवाद

श्री श्री और SIMI -एक संवाद
स्वामी सद्योजाथः और हरीश रामचंद्रन द्वारा

एक रूढिवादी की मानसिकता कैसी विस्मयपूर्ण होती है? वह क्या है जो उनको वैमनस्य की तरफ उकसाता है? कुछ समय पूर्व हमें Art of Living के प्रणेता परम्पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी और कुछ SIMI (Student Islamic Movement of India) के कार्यकर्ताओं के मध्य हुई वार्तालाप को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ. इतने समय पूर्व हुए वार्तालाप से भी आज के परिपेक्ष में हम बहुत कुछ सीख सकते हैं.

इस लेख की पृष्ठभूमि श्री श्री रवि शंकर जी का केरला का दौरा है जो कि दिसम्बर 2000 के पहले सप्ताह में हुआ था. केरला के विभिन्न शहरों में श्री श्री के आगमन पर आनन्दोत्सव का आयोजन किया गया था. आनन्दोत्सव में लाखों लोगों के सम्मेलन की व्यवस्था के लिए केरला के आयोजक पूर्णतः कार्यशील थे. कई माह पूर्व से आर्ट ऑफ लिविंग के सैकड़ों स्वयंसेवक पूरे जोश के साथ तैयारी में जुटे हुए थे. पर आयोजन के केवल एक सप्ताह पूर्व समाचार पत्र में SIMI द्वारा 6 दिसम्बर को (जो बाबरी मस्जिद का ध्वस्तीकरण का दिन था) पूरे केरला में बंध का ऐलान कर दिया गया. इसी 6 दिसम्बर को त्रिसूर में जो केरला की सांस्कृतिक राजधानी है आनन्दोत्सव का आयोजन होना था. पुलिस ने भी आगाह किया कि उनको बम विस्फोट की धमकियाँ मिली हैं. श्री श्री ने व्यवस्थापक समिति के अध्यक्ष श्री जेवियर के संपर्क करने पर कहा ''सत्संग तो होगा.''

समाचार पत्रों में कार्यक्रम को स्थगित करने की घोषणा और पुलिस द्वारा दी गई अनुमति वापस लेने के बावजूद भी 6 दिसम्बर को एक लाख से अधिक व्यक्ति सत्संग में सम्मलित हुए. अगले दिन श्री श्री ने SIMI के नेताओं से मुलाकात रखी.

SIMI के चार नेताओं एक व्यवस्थापक के घर मुलाकात करने आए. उनके आने से हॉल में तनाव महसूस होने लगा जहाँ सैकड़ों भक्त श्री श्री से मिलने के लिए इन्तजार कर रहे थे.

नसीब, आर्ट ऑफ लिविंग का एक भक्त उन नेताओं को लेकर उस कमरे में आया जहाँ हम लोग श्री श्री के साथ बैठे थे.

SIMI के नेता 22-24 वर्षीय हट्टे-कट्टे युवक थे जिनमें से एक अपने हाथ में कुरान-ए-पाक लिए हुए था. वे सख्त और निष्ठुर लग रहे थे. उनकी भीतरी आग और हठीलापन जता रहा था कि वे श्री श्री की हर बात को काटेंगे और तर्क वितर्क करेंगे.

श्री श्री अपने सहज प्रफ़ुल्लित स्वरुप में थे। वाद विवाद के लिए मंच तैयार था जिसमें एक ओर थे असंयमी, उध्दत, अधीर आदर्शवादी, अपनी श्रेष्ठता सिध्द करने के लिए तत्पर युवक और दूसरी ओर शांत, सौम्य, ज्ञान की गहराइयों में डुबकी लगाए हुए सिध्द पुरुष. कमरे में बैठे हम सभी लोग यह जानने के लिए बहुत उत्सुक थे कि श्री श्री इन तेज तर्रार युवकों से कैसे निपटेंगे. श्री श्री ने उनको गले लगाकर बैठने का निमंत्रण दिया. श्री श्री की सहजता में लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं था. कोई भी इन युवकों श्री श्री के भक्त समझने की भूल कर सकता था. केवल एक ही अन्तर था कि वे चारों कुर्सी पर बैठे थे और बाकी हम सब भक्त नीचे जमीन पर. हम सभी के लिए श्री श्री के निस्वार्थ प्रेम को अनुभव करने का एक और अवसर था.

दल के नेता ने बोलाः
SIMI - आप हमसे मिलना चाहते थे?

श्री श्री – हाँ - हम जानना चाहते थे कि आपकी संस्था को आनन्दोत्सव से क्या विरोध है?

SIMI -हमको लगा कि 6 दिसम्बर का आनन्दोत्सव हमारी मजहबी जज़बातों को जानबूझ कर तौहीन पहुँचाने के लिए किया गया है. क्या आप हमारे मजहब के बारे में कुछ भी जानते हैं? क्या आप कुरान में जरा भी यकीन रखते हैं?

श्री श्री – हाँ-अवश्य.

SIMI – (उनको इस उत्तर की अपेक्षा नहीं थी. कुरान की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अगला सवाल किया) हमारा मानना है कि ज्ञान केवल कुरान में ही है. आपको क्या लगता है?

श्री श्री - यह ज्ञान समय समय पर मनुष्य के सामने प्रकट हुए विभिन्न ज्ञानों में से एक है.

SIMI - पर अल्लाह के मुताबिक यही इकलौता इल्म है. कुरान का बताया रास्ता ही इकलौता रास्ता है, दूसरा और कोई रास्ता नहीं है.

श्री श्री - यह संदेश तो सभी धर्मग्रन्थों में है - वेदों में कहा गया है ''नान्यः पन्थाः अन्याय: विद्यते.'' अर्थात सत्य के सिवाय कोई भी अन्य मार्ग नहीं है. बाइबिल में भी यही कहा गया है. जीसस कहते हैं, ''परमपिता ईश्वर तक पहुँचने के लिए मुझसे होकर गुजरना होगा. मैं ही एकमात्र रास्ता हूँ.''

SIMI - पर हमारा मजहब कहता है कि बुतपूजा बुरी है, कुफ्र है.

श्री श्री - अच्छा और बुरा आखिर है क्या? यह सापेक्ष है. इस सापेक्ष अस्तित्व में कभी पूर्णता नहीं होती. जैसे दूध लाभदायक है पर अत्यधिक दूध घातक हो सकता है. विष हानिकारक होता है - परन्तु बूँदमात्र विष जीवनदायक हो सकता है. अधिकतर जीवनरक्षक दवाइयों पर ''विष'' लिखा होता है. यह सभी ना ही पूर्णतः अच्छे हैं और ना ही पूर्णतः खराब. वह तो बस ''है''. सत् द्वैत के परे है. ईश्वर ही सम्पूर्ण और इकलौता सत् है. तो इसमें निष्ट-अनिष्ट के लिए जगह ही कहाँ है?

SIMI - फिर भी आप हिन्दु लोग अनेकों देवी देवताओं को पूजते हैं जबकी हमारे यहाँ बस एक खुदा है जिसके पैगाम से ही जन्नत तक पहुँचा जा सकता है.

श्री श्री - अलग अलग रुपों में एक ही परमात्मा है

SIMI - (व्याकुल होकर श्री श्री को बीच में ही काटते हुए) पर कुरान कहता है कि हमें केवल निराकार अल्लाह की इबादत करनी चाहिए जबकि हिन्दु पत्थर की मूर्ति की पूजा करते हैं.

श्री श्री - (इस पर श्री श्री ने अचानक उनसे पूछा) - क्या आप कुरान की इज्जत करते हैं?

SIMI -(इस प्रश्न से कुछ भौंचक्के से प्रतीत होते हुए) हाँ, यह तो अल्लाह का पैगाम है.

श्री श्री - क्या आप मक्का का आदर करते हैं?

SIMI – हाँ, वह तो हमारे लिए पाक जमीन है.

श्री श्री - इसी तरह हिन्दु भी भगवान की रचना को भगवान की तरह पूजते हैं. जैसे कुरान, ईद का चाँद, काबा, रमजान का महीना आप के लिए पाक है उसी तरह हिन्दुओं के लिए गंगा, हिमालय, ॠषि मुनि आदि पवित्र हैं.देखिए जैसे आपकी बेटी की फ़ोटो आपकी बेटी नहीं है फिर भी आप फ़ोटो को चाहते हैं. क्या फ़ोटो देखकर आपको अपनी बेटी की याद नहीं आती?

SIMI - (सब कहते हैं) हाँ.

श्री श्री - उसी प्रकार प्रतीक भगवान नहीं है पर भगवान की तरह पूजनीय है. यही पूजा और पवित्रता का भाव मनुष्य को जीवन्त बनाता है. इसी लिए सभी ॠषि मुनियों ने सारी सृष्टि और सम्पूर्ण जीवन को पवित्र माना है. उन्होंनें भगवान को सर्वव्यापी माना है जो अपनी सृष्टि से परे नहीं है. जैसे नृत्य और नर्तकी. श्री श्री ने और विस्तारपूर्वक बताया - आत्मा को विविधता प्रिय है. क्या सिर्फ एक ही तरह की सब्जी और् फल होते हैं? भगवान ने भिन्न भिन्न तरह के फल सब्जी रचे. केवल एक ही प्रकार का वृक्ष नहीं है, ना ही केवल एक ही प्रकार का साँप, बादल, मच्छर . आप अपने कपडे भी अवसर के अनुसार बदलते हैं. तो यह चेतना जो समस्त सृष्टि के रुप में अभिव्यक्त है - कैसे नीरस हो सकती है? केवल एक ही ईश्वर है अनेक रुपों में. केवल एक ही ईश्वर मानना चाहिए. जब तुम दिव्यता की इस विविधता को स्वीकार करते हो तो तुम कट्टरपंथी या रुढिवादी होने से बचते हो.

SIMI -(कमरे में सन्नाटा छा गया और निरउत्तर होकर चारों एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे. फिर उनका मुखिया बोला) मैं और मौलाओं से मश्विरा करके बताऊँगा.
श्री श्री - (करुणापूर्वक) कोई बात नहीं (हाथों को लहराते हुए) चलो मज़हब की बातें छोडते हैं, हम सब इन्सान हैं चलो एक शांतिपूर्ण समाज का निर्माण करें और विकास के लिए सोचें.

SIMI - नहीं, नहीं, नहीं आप क्या कह रहे हैं? आप इस दुनिया की बातें कर रहे हैं. हम इस दुनिया में जो भी करते हैं वह मायने नहीं रखता. कुरान कहता है -शाश्वत जिन्दगी में जो हासिल होगा - वही मायने रखता है, भौतिक दुनिया की फ़िक्र छोड़ोे. कौम की खिदमत करके तुम दुनिया में ही फँसे रहोगे. तुम्हें अल्लाह के हुक्म की तामील करनी है. अल्लाह ही इकलौता खुदा है और मोहम्मद ही आखिरी पैगंबर.
श्री श्री - इस पर श्री श्री ने उनको रोका और कुछ देर बाद पूछा - क्या आपको लगता है कि सिक्खों के गुरु पैगम्बर नहीं है? क्या मीराबाई एक पैगम्बर नहीं है? या चैतन्य महाप्रभु?

SIMI - (एक बार पुनः सन्नाटा छा गया उनके चहरे के भाव में बदलाव था - कठोरता की जगह अब अनिश्चितता झलक रही थी. श्री श्री पहले जैसे ही स्वाभाविक थे) नहीं - आप जन्नत तभी जा सकते हैं जब आप अल्लाह और कुरान को मानते हैं.

श्री श्री - नहीं प्यारों, बुध्द, महावीर, नानक, ईसामसीह, शंकर सभी हैं क्या आप समझते हैं कि यह सब जन्नत में नहीं हैं. अगर नहीं हैं - तो जन्नत की अपेक्षा मैं इन लोगों के साथ रहना अधिक पसंद करुँगा.

SIMI - आप इतने अच्छे इन्सान हैं पर हमें आप पर तरस आता है क्योंकि आप हकीकत को नहीं समझ पा रहे हैं. आप अल्लाह तक नहीं पहुँच पाएँगे. आप को अल्लाह की रहमत कभी नहीं मिलेगी.
श्री श्री - कोई बात नहीं. (शरारत भरी मुस्कान के साथ) मैं तो इन लोगों के साथ में रहूँगा. (शंकर, नानक आदि)

( श्री श्री की धैर्य की सराहना करते हुए भी हम लोग इन युवकों के भ््रामित धारणाओं के प्रति चिंतित थे. कमरे में उपस्थित और लोग भी अधीर हो रहे थे कि श्री श्री इन चारों को इतना अधिक समय क्यों दे रहे हैं जो इतने ग्रहणशील भी नहीं हैं और जबकि बाहर सैकड़ों लोग श्री श्री के दर्शन मात्र की प्रतीक्षा में थे)
SIMI -क्या आप जानते हैं कि 1400 साल पहले बीच रेगिस्तान में अल्लाह नें कुदरत के राज क़ा ऐलान करा? जब विज्ञान का इजाद भी नहीं हुआ तो अल्लाह ने बताया कि अणु सबसे छोटा कण है.
श्री श्री - (मुस्कराते हुए कहा) हाँ - शास्त्रों में यही बात 10,000 साल पहले कही गई है. शास्त्रों में कहा जाता है धरती 1900 करोड वर्ष पुरानी है. सत् देश और काल के परे है. यह एक स्थान और एक समय से बंधा हुआ नहीं है. हमें एक वैज्ञानिक आध्यात्मिकता की आवश्यकता है.

आखिर में प्रसाद के रुप में श्री श्री ने चारों को लड्डू दिया. अब उनके चेहरों पर हल्की मुस्कुराहट की झलक थी. जाते जाते श्री श्री ने उनको गले से लगाया. निश्चित तौर पर उनकी कठोरता में कमी आ चुकी थी. क्या उनकी मनोवृत्ति में कुछ बदलाव था? हम सोच रहे थे - क्या यह मनोवृत्ति टिकी रहेगी या वह लोग अपनी पुराने कट्टरवादी वृत्ति में लौट जाएंगे? पर एक बात पक्की थी कि श्री श्री के साथ हुई इस मुलाकात को वह भूल नहीं पाएंगे.

बाद में जब श्री श्री भोजन कर रहे थे किसीने उनसे पूछा, ''ऐसा क्यों है कि इस्लाम दुनियाभर में इतने आतंकवादियों को जन्म दे रहा है? किसी भी दूसरे धर्म से इतने आतंकवादी नहीं उपजे - इसका क्या कारण है?

श्री श्री - उनके अंदर की आग और प्रतिबध्दता को देखो. उनकी अच्छाईयों को अपनाओ और सीखो कि तुम्हें क्या नहीं करना चाहिए. उन्हें खराब व्य्क्ति की उपाधि नहीं दो. उनको वेदान्त का ज्ञान नहीं मिला है. (फर मिर्च में घी मिलाते मिलाते श्री श्री मुस्कराते हुए बोले) इस सृष्टि में हरेक चीज क़ा अपना स्थान है.

श्री श्री और नेपाल के प्रधानमंत्री की हुई बैठक


श्री श्री और नेपाल के प्रधानमंत्री की हुई बैठक

नेपाली प्रधानमंत्री पुष्पा कमल दहल उर्फ प्रचंड और प्रख्यात आध्यात्मिक नेता पूज्य श्री श्री रविशंकर की मुलाकात सोमवार को नई दिल्ली में हुई । बैठक के दौरान श्री श्री ने नेपाल को एशिया का स्विट्ज़रलैंड बनाने की दृष्टि से पर्यटन को बढ़ावा देने और नेपाल की समृद्ध विरासत के संरक्षण के जरूरत पर बल दिया।

संभाषण की शक्ति प्वाइंट ऑफ़ पीस शिखर सम्मेलन, स्टैवेंजर, नार्वे

श्री श्री ने नोबल शांति पुरुस्कार से सम्मानित लोगों को किया उद्बोधन
कहा कि संसार में संघर्ष समाप्त करने के लिये संभाषण और मध्यस्थों का होना ज़रूरी

स्टैवेंजर, नार्वे 12 सितम्बर , 2008: विश्व विख्यात मानवीय और आध्यात्मिक नेता और आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक परम पूज्य श्री श्री रविशंकर ने परस्पर संवाद की शक्ति पर जोर देते हुए कहा कि दुनिया में संघर्ष को अंत करने का यही उचित हल है।

वे सरकार द्वारा प्रायोजित प्वाइंट ऑफ़ पीस शिखर सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे जो पूर्व में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित लोग और संघर्ष के समाधान के विशेषज्ञों के बीच स्टैवेंजर, नार्वे में हो रही बैठक है। श्री श्री ने ज़ोर दिया कि मध्यस्थता द्वारा झगड़ते दलों को प्रभावी तरह से बातचीत पर लाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि "आज विश्व में मध्यस्थों को बनाने की और परस्पर संवाद की एक बहुत अधिक आवश्यकता है। मध्यस्थ की भूमिका महत्वपूर्ण है और उसे बिना खुद को अधिरोपित करे हुए एक उत्प्रेरक की भूमिका निभानी है।"

इन योग्य और शांति के विश्व विख्यात नेताओं को संबोधित करते हुए , श्री श्री ने बताया है कि वह और आर्ट ऑफ लिविंग हिंसक प्रवृत्ति में सुधार और संवाद को बढ़ावा देने के पूरे विश्व में किस प्रकार कार्यरत हैं । तनाव को दुनिया में संघर्ष का मूल कारण बताते हुए, उन्होंने इस बात पर बल दिया कि तनाव को जड़ से हटाने वाली विधियों को अपनाया जाए।" “तनाव आपसी संचार में बाधा पैदा करता है। बातचीत के लिए किसी भी एक मध्यस्थ के होने की जरूरत है, और मध्यस्थ की कुशलता से सफल संवाद होता है।“
“किसी संघर्ष में हमेशा गलत सूचना, अफ़वाहें, और आंदोलन शामिल होते है। मध्यस्थ को आवश्यक्ता है कि वह लोगों को सुने और उनमें उम्मीद जगाए। सबसे ज़रूरी है कि मध्यस्थ परिस्थिति को भली भांति समझे ताकि मामला और अधिक नहीं भड़के।“

“अधिकांश संघर्ष किसी पहचान को बनाने के लिये आधारित होते हैं : हम अपनी पहचान को किसी धर्म, संस्कृति, भाषा आदि के साथ जोड़ लेते हैं और हम भूल जाते हैं कि हम सभी पहले इंसान हैं। धर्म, राष्ट्रीयता, लिंग आदि इंसानियत के बाद आते है। इस सीमित पहचान का गलत रस्ता लोगों को मरने मारने के लिए भी तैयार कर देता है। अमरीका में हुए 9/11 हमले के बाद अपने भय, अविश्वास और संघर्ष को जीतने के लिये हमें इस संकीर्ण विचारधारा से आगे निकलना होगा। आतंकवाद को समाप्त करने के लिये दूरदर्शी होकर हमें अपने बच्चों को बहुसांस्कृतिक व बहुधार्मिक शिक्षा देने होगा।"


यह तीन दिवसीय शिखर सम्मेलन स्टैवेंजर शहर को दिये “2008 की यूरोपीय सांस्कृतिक राजधानी” उपाधि का एक हिस्सा है। बहुत बड़ी संख्या में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित जन एकत्रित हुए और विचारों का आदान प्रदान करा। श्री श्री को “संभाषण की शक्ति - 9/11 और उसके बाद क्या” विषय पर अपने विचार प्रकट करने के लिए आमंत्रित किया गया था। उनके अलावा पैनल में शामिल थे – दक्षिण कोरिया के पूर्व राष्ट्रपति महामहिम किम दे जंग, नार्वे के पूर्व प्रधानमंत्री क्जेल माग्ने बॉंडेविक और अन्य।

गणेश चतुर्थी


गणेश चतुर्थी तब मनाया जाता है,जब भगवान गणेश पृथ्वी पर अपने सभी भक्तो के लिए प्रकट हुए. गणेश गज के सिर वाले, शिव पार्वती के पुत्र, जिनको बुद्धि ,समृद्धि और सौभग्य प्रदान करने वाले सर्वोच्च देवता के रुप मॅ पूजा जाता है. हाँलाकि, यह उत्सव उनके जन्मदिवस के रुप मॅ मनाया जाता है, परंतु इस त्यौहार के पीछे क प्रतीक बहुत गूढ- है.
गणेश जी के सारतत्व आदि शँकराचार्य ने बहुत ही सुन्दर रूप मॅ लाया है. हाँलकि गणेश जी की उपासना गजवदन के रूप मॅ की जाती है लेकिन उनका यह रूप उनके परब्रम्ह रूप को उभारता है.गणेश जी का वर्णन ‘अजम निर्विकल्पम निराकारमेकम’ के रूप मॅ किया जाता है – जिसका मतलब है कि गणेश जी अजन्मा हैँ.
वे अजम हैँ, निराकार हैँ, व निर्विकल्प हैँ. गणेश उस चेतना के प्रतीक हैँ जो सब जगह व्याप्त है. ग्णेश उस ऊर्जा के स्रोत हैँ जो इस ब्रम्हांड का कारण है, जिससे सबकुछ उत्पन्न हुआ है और सबकुछ समा जाएगा. गणेश कहीँ बाहर नहीँ हैँ बल्कि हमारे जीवन के केन्द्र मए हैँ. परंतु यह बहुत ही सूक्ष्म ज्ञान है. हर कोई निराकार का अनुभव बिना आकार के नहीँ कर सकता है. हमारे प्राचीन ऋषि, मुनि तह जानते थे इसलिए उन्होँने यहाँ रूप बनाया जो सभी स्तर के लोगोँ के लिए लाभदायक हो और सभी इसे समझ सकेँ. वे जो इस निरकार का अनुभव नहीँ कर सकते , वे साकार की अभिव्यक्ति का कुछ अनुभव निर्वाह करने के बाद निराकार ब्राह्म्ण के रूप तक पहुँच जाते हैँ.
इसलिए वास्तविकता मॅ गणेश निराकार हैँ, फिर भी आदि शँकराचार्य ने उनके साकार रूप को पूजा और यह साकार रूप यह सन्देश देती है कि गणेश जी निराकार है. इस प्रकार यहाँ साकार रूप एक प्रारम्भ बिँदु के रूप मॅ पूर्ति करते हुए धीरे धीरे निराकार चेतना को अभिव्यक्त करती है. गणेश चतुर्थी निराकार परमात्मा – श्री गणेश तक बार बार उनके अभिव्यक्त रूप की पूजा कर , पहुँचने की अनूठी कला है. यहाँ तक की गणेश स्त्रोम जो गणेश जी की प्रशँसा मॅ गाया जाता है . वह भी यही ब्ताता है. हम गणेश जी से प्रार्थना करते हैँ कि वे कुछ समय के लिए हमारी चेतना से निकल कर गणेश मूर्ति मॅ विराजेँ जिससे हम उनके साथ खेल सकेँ. पूज के समापन के बाद हमारा उनसे अपनी चेतना मॅ वापस आने के लिए प्रार्थना करते है. जब वे मूर्ति मॅ विराजित होटल हैँ तब हमारा पूजा के द्वारा भगवान को वही अर्पण करते हैँ जो भगवान ने हमेँ दिया है.
कुछ दिनोँ कि पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन यहाँ प्रबलता से समझाता है कि भ्गवान मूर्ति मॅ नहीँ बल्कि हमारे अन्दर हैँ. तो सर्वव्यापी को साकार मॅ अनुभव करना और उससे आनन्द प्राप्त करना ही गणेश चतुर्थी का सार है. एक तरह से ऐसे उत्सव का आतयोजन करना एक जोश और भक्ति की लहर का नेत्रित्व करती है.
गणेश हमारे भीतर के सभी अच्छे गुणो के देवता हैँ.इसलिए जब हम उनकी पूजा करते हैँ तब हमारे अन्दर के सभी अच्छे गुण खिल जाते हैँ. वे बुद्धि व ज्ञान के भी देवता हैँ. जब हमारा अपनी आत्मा के बारे मॅ सजग होते हैँ तब हमारे अन्दर ज्ञान का उदय होता है. जहाँ आलस्य है वहाँ अज्ञान है, बुद्धि नहीँ है, चैतन्यता नहीँ है और जीवन का विकास भी नहीँ है. इसलिए चेतना को जगाना है, और इस चेतना मॅ व्याप्त श्री गणेश ही हैँ. तभी हर पूजा के पहले गणेश जी की पूजा होती है.

इसलिए, गणेश जी की मूर्ति अपने अन्दर ही स्थापित कर, उनका ध्यान व अनुभव कर अनंत प्रेम के साथ उनकी पूजा करनाहै. यही गणेश चतुर्थी का प्रतीकात्मक सार है, अपने अन्दर व्याप्त गणेश तत्व को जगाना है.

मधु

18 अक्टूबर, 2001
बैंगलौर आश्रम
भारत

मधु

हो जाए लहराती पवन मधुर,
हो जाए बहता सागर मधुर,
हो जाए हर पत्ता, हर जड़ी-बूटी उपकारक, हो जाए हर रात मधुर,
हो जाए हर दिन मधुर,
हो जाए धरती का हर रजकण हमारे लिये मधुर,
हो जाए स्वर्गलोक और सभी पूर्वज हमारे प्रति मधुर,
हो जाए हर पेड़ मधुमय,
हो जाए सूर्य मधुर,
हो जाए उसकी हर किरण अनुकूल,
हो जाए सभी पशुओं का स्वभाव मधुर, हो जाए हमारा भोजन अनुकूल,
हो जाए हमारा हर विचार मधुर, हो जाए हमारी वाणी मधुर,
हो जाए हमारा जीवन पवित्र व दिव्य,
हो जाए जीवन मधु जितना मीठा ।

चिन्ता और भावनाएँ

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 315
26 जुलाई, 2001
उत्तरी अमेरिका आश्रम क्यूबेक
कैनेडा

चिन्ता और भावनाएँ
सिर में चिन्ता रहती है और दिल में भावनाएं। दोनों एक ही समय पर कार्य नहीं कर सकते। जब तुम्हारी भावनाएँ प्रबल होती हैं तब चिन्ताएँ घुल जाती हैं। यदि तुम बहुत चिन्ता करते हो, तुम्हारी भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं; तुम सिर में ही अटक जाते हो। चिन्ताएँ तुम्हारे दिमाग और दिल को निष्क्रिय और सुस्त बना देती हैं। चिन्ताएं सिर पर पत्थर रखने जैसा है। चिन्ताएं तुम्हें उलझा देती हैं, तुम्हें एक पिंजरे में जकड़ लेती हैं। जब तुम्हें भावनाएं छूती हैं तब तुम चिन्ता नहीं करते। भावनाएँ फूलों के समान होती हैं वे निकलते हैं, खिलते हैं और विलीन हो जाते हैं। भावनाएँ उठती हैं, गिरती हैं और फिर लुप्त हो जाती हैं। जब हम भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं तब हमें आराम मिलता है। क्रोधित होने पर जब तुम अपना गुस्सा व्यक्त करते हो तो अगले ही पल तुम हल्का महसूस करते हो। दुःखी होने पर जब तुम रोते हो तो हल्के हो जाते हो। भावनाएँ कम समय के लिए रहती हैं और फिर लुप्त हो जाती हैं परन्तु चिन्ताएँ चिता समान हैं जो तुम्हें लम्बे समय तक खाती रहती हैं। भावनाएँ तुम्हें सहज बनाती हैं। बच्चे भावनाओं को महसूस करते हैं इसलिए वे सहज होते हैं परन्तु वयस्क अपनी भावनाओं पर लगाम लगाते हैं और चिन्ता करना शुरू कर देते हैं। किसी भी बात की चिन्ता से काम में रुकावट आता है जबकि भावनाएं काम को आगे बढ़ाती हैं। यदि हम अपनी नकारात्मक भावनाओं के प्रति चिन्तित हैं तो यह एक कृपा है क्योंकि ये चिन्ता इन भावनाओं पर लगाम लगाती हैं और तुम्हें उनपर कार्यवाही नहीं करने देती। आमूमन सकारात्मक भावनाओं के प्रति चिन्ताएँ कभी नहीं होती। चिन्ता में अनिश्चितता होती है। चिन्ता तुम्हारी उर्जा को नष्ट कर देती है, और जब तुम चिन्ता करते हो तब तुम स्पष्ट रूप से सोच नहीं पाते। चिन्ताओं को समर्पित करना प्रार्थना है और प्रार्थना तुम्हें भावनाओं की ओर ले जाती है।
प्राय: जब तुम सोचते हो कि तुम बहुत अधिक भावनात्मक हो गए हो तब तुम अपनी भावनाओं के बारे में चिन्ता करना शुरू कर देते हो । चलो इसकी चिन्ता छोड़ो और भोजन को महसूस करो।

विश्राम का परम आनन्द

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 314
19 जुलाई, 2001
उत्तरी अमेरिका आश्रम क्यूबेक
कैनेडा

विश्राम का परम आनन्द
विश्राम से भी आनन्द प्राप्त होता है और कर्म से भी आनन्द प्राप्त होता है। कर्म में मिला आनन्द क्षणिक होता है और उससे थकान होती है, जबकि विश्राम से मिला आनन्द महान और शक्तिप्रदायक होता है। इसलिए जिसने विश्राम (समाधि) के आनन्द का स्वाद चखा है उसके लिए कर्म का आनन्द बहुत तुच्छ है। हम जो भी कर्म कर रहें हैं वे इसीलिये कर रहें हैं ताकि हमें गहरा विश्राम मिल सके। कर्म करना हमारी प्रणाली का एक हिस्सा है। फिर भी सच्चा आनन्द समाधि में मिलता है। गहरे विश्राम को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सक्रिय होना पड़ेगा। दोनों के उचित संतुलन का होना आवश्यक है। अधिकांश लोग आनन्द इधर उधर ढूँढते रहते हैं परन्तु बुध्दिमान् व्यक्ति केवल मस्कुराता है। केवल ज्ञान में ही असली विश्राम है।

गलतियाँ

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 313
12 जुलाई, 2001
लेक ताहो, केलिफॉरनिया
यूनाईटेड स्टेट्स

गलतियाँ
गलतियाँ हमेशा होती रह्ती हैं. तुम उनसे अक्सर परेशान होकर उन्हें सुधारना चाहते हो. तुम कितना सुधार सकते हो? दो परिस्थितियों मैं तुम औरों की गलतियों को सुधारते हो -
1. तुम किसी की गलती को सुधारते हो क्योंकि वह तुम्हें परेशान करती है। लेकिन तुम्हारे सुधारने से भी काम नहीं बन पाता है।
2. तुम किसी की गलती को सुधारते हो ताकि उस व्यक्ति का विकास हो सके, और इसलिये नहीं कि उससे तुम्हें परेशानी हो रही है।

गलतियाँ सुधारने के लिये तुम्हें प्रेम और अधिकार की आवश्यकता है. प्रेम और अधिकार एक दूसरे से विरोधाभासी प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है. बिना प्रेम के अधिकार से घुटन होती है और काम नहीं बनता. बिना अधिकार का प्रेम छिछला है. एक दोस्त में दोनों प्रेम और अधिकार की आवश्यकता होती है परन्तु दोनों को सही मात्रा में होना चाहिये. वह तब सम्भव होगा जब हम पूर्णत: वैराग्य में होंगे व केन्द्रित होंगे.

जब तुम गलतियों को हो जाने की अनुमति देते हो, तब तुम दोनों अधिकारपूर्ण व मधुर हो सकते हो. दिव्यता का यही स्वरूप है – दोनों का सही संतुलन. कृष्ण और जीज़स में दोनों थे. जब लोगों में प्रेम होता है तब वे एक दूसरे पर अधिकार जमाते हैं. हरेक सम्बन्ध में अधिकार और प्रेम होता है.

अभय – पति प्रेम करता है और पत्नि के पास अधिकार होता है. माइकी – क्या यह एक गलती है ? गुरूजी – मुझे इसे नहीं सुधारना है. (हँसी)

माँ का सपना सच हुआ - डा0 कैथरीन कोमाण्डा

डॉ0 कैथरीन कोमाण्डा, पी.एच.डी., संयुक्त राज्य अमेरिका में विश्व धर्मों के अध्ययन की प्रोफ़ेसर है।

मेरी माँ हमेशा मुझे बताया करती थी कि बचपन से ही मुझ पर एक फ़रिश्ते की कृपा दृष्टि है। मैं उनसे अक्सर वह कहानी सुनाने को कहा करती थी, जिसमें यह 'फ़रिश्ता' उनसे मिलने आया और उनका सारा भय हर ले गया।
मेरी माँ के लिये उनकी गर्भावस्था बहुत कष्टदायी थी। उस दौरान वे अधिकतर बीमार ही रही, और अंत में उनके साथ एक कार दुर्घटना हो जाने के कारण उन्हें बिस्तर से उठने तक को मना कर दिया गया। डॉक्टरों को डर था कि शायद मैं जीवित इस दुनिया में न आ सकूँ। मेरी माँ भय व चिंता के कारण ठीक से सो भी नहीं पाती थीं। एक रात उनका कमरा एक सुनहरे प्रकाश से भर गया और एक दिव्य आकृति उनके सामने प्रकट हुई। माँ बताती थी कि उन्होंने सफ़ेद रंग के ढीले वस्त्र पहने हुए थे, उनके बाल लंबे और काले थे, और उनके एक दाढ़ी भी थी।
पर माँ के अनुसार उस दिव्य पुरूष में जो सबसे मनोहर थी वह थी उनकी ऑंखें। माँ ने कभी भी इतनी सुंदर ऑंखें नहीं देखी थीं। वे बिना कुछ कहे ही, उन ऑंखों से मानो सारी सृष्टि का प्रेम माँ पर न्यौछावर कर गए। प्रेम की उन लहरो ने माँ का सारा भय धो दिया। माँ हमेशा कहती थीं कि उन्हें लगता था कि वे दिव्य पुरुष शायद जीसस थे, पर वे जो भी थे, माँ उन्हें कभी भूल नहीं पायी और उस घटना के बाद, आज तक, उन्हें जीवन में किसी भी बात का भय न रहा।

जब मैं उन्नीस वर्ष की थी और कॉलेज में पढ़ती थी, तब मैं गुरुजी से मिली। मेरी माँ सोचने लगी कि शायद मैं किसी विचित्र धार्मिक पंथ में शामिल हो गयी हँ और वे मुझको लेकर काफ़ी चिंतित रहती थीं। जब मैं अपनी साधना करती थी तो उन्हें लगता था कि मेरे कमरे से अजीब सी आवाज़ें आ रही हैं और वे दूर से, मेरे कमरे मे रखी हुई गुरुजी की फोटो को देखतीं और सोच में पड़ जातीं कि, पता नहीं यह कौन संत हैं। एक समय आया, उन्हें कैंसर हो गया, तब उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि मेरे गुरु कौन हैं, क्या सिखाते हैं और कैसे दिखते हैं। जब मैंने उन्हें उनका चित्र दिखाया तो वे रो पड़ीं। मैंने उनसे पूछा क्या बात है तो उन्होंने उत्तर दिया, ''यह वहीं दिव्य पुरुष हैं जो तुम्हारे पैदा होने से एक रात पहले मेरे पास आये थे।''

रहस्यमय स्थल
कई हर्ष पूर्ण वर्ष बीत गये। एक समय ऐसा आया जब मुझे लगने लगा कि संस्था तो बहुत बड़ी हो गयी है, पंरतु साथ ही साथ संगठन औपचारिक होता जा रहा है जिससे व्यक्तियों के बीच के घनिष्ठ संबंध कम हो रहे हैं। मैं अपने को अलग-थलग महसूस करने लगी। मैं हमेशा शिकायतें करती रहती थी।

उस साल, गर्मी में, गुरुजी कैलिफ़ोर्निया में थे, और बर्कले में सार्वजनिक सभा करने वाले थे। अपनी नकारात्मक भावनाओं के चलते मैं वहाँ गुरुजी से मिलने भी नहीं गई। फिर मैंने सुना कि गुरुजी सैन जोज़ जाने वाले थे। मैंने अपने आप से कहा कि मैं उनसे मिलने नहीं जाऊँगी। आश्चर्यजनक रूप से, अगली सुबह बिना कुछ सोचे-समझे, मैं बस गाड़ी में बैठी और चल पड़ी। मैंने लंबा रास्ता लिया और खिली धूप, समुद्र की लहरो व पहाड़ियों का आनन्द लेती हुई वहाँ पहुँची। शहर में दाखिल होते ही मुझे एकदम से एहसास हुआ कि मैं तो यह भी नहीं जानती की गुरुजी कब और कहाँ सभा करने वाले हैं। न ही मेरे पास कोई फ़ोन नंबर था। मेरे वहाँ ट्रैफ़िक भी बहुत थी और मुझे चिंता होने लगी कि गुरुजी को कहाँ ढूंढूँ। मेरे अंदर सहज ही एक प्रार्थना ने जन्म लिया, तभी एक कार मेरे बगल से निकली जिसमें भारतीय मूल के लोग सवार थे। मैंने सोचा शायद ये लोग मुझे किसी भारतीय दुकान का पता बता दें जहाँ गुरुजी के कार्यक्रमाें का पोस्टर या कार्यक्रम का समय लगा हो। जैसे ही मैंने यह सोचा, वैसे ही अचानक मुझे उनके डैश बोर्ड पर सूर्य की किरणों से चमकता हुआ गुरुजी का चित्र दिखाई पड़ा। बस, मैंने अपनी कार उन लोगों के पीछे लगा दी और उसके बाद ही मस्ती शुरू हो गयी। मैंने देखा कि हाईवे पर कई गाड़ियाँ मुझे हटाकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं। तब मैंने थोड़ा ध्यान से देखा कि यह जाँबाज़ ड्राईवर तो हमारे अपने भक्तगण हैं (जब गुरुजी कार से यात्रा करते है, तो बाकी लोगों में गुरुजी की गाड़ी के साथ अपनी गाड़ी लगाने की होड़ लगती है।) मैं अनजाने में ही उस होड़ में शामिल हो गयी थी। मुझे लगा कि जिस कार के पीछे मैं हँ क्या उसी में गुरुजी हैं ? वह कार हाईवे छोडकर घने जंगल में बने एक कच्चे रास्ते पर जाने लगी और मैं भी पीछे चली गई। जब काफ़िला रुका तब मैं अपनी गाड़ी से निकल कर पेड़ो के बीच भागी और एक खुली जगह पर आ कर रुक गई। गुरुजी वहाँ एक तख्ती के नीचे खड़े थे जिस पर लिखा था 'गुप्त स्थल' (द मिस्ट्री स्पॉट)। वे एक बड़ी सी मुस्कान के साथ बोले ''तुम सड़क पर मिली थी'' मैंने आश्चर्य से पूछा ''आपको तो उत्तर से दक्षिण जाना था और मुझे आप दक्षिण से उत्तर जाते हुए मिले'' गुरुजी हँस कर बोले कुछ बातें बस रहस्य ही है। बाद में मुझे पता चला कि उस दिन सुबह उठ कर गुरुजी ने अपना पहले निष्चित किया रास्ता बदल दिया था। रास्ते में उन्होंने एक गलत मोड़ ले लिया था और फिर उन्हें हाईवे पर वापस लौटने के लिये दक्षिण से उत्तर की ओर आना पड़ा। वहीं पर मेरी कार 'अनंत' से टकराई और उसके बाद मैंनें कभी भी शिकायत नहीं की।

आवाज़ जो आई नहीं - श्री प्रकाश एन

श्री श्री प्रकाश एन, त्रिवेन्द्रम के एक कम्प्यूटर व्यवसायी है। आजकल यह सॉफ्टवेयर निर्यातक हैं इसके पूर्व के.एल.एम (रॉयल डच एयरलान्इस में) सूचना प्रबंधक रह चुके हैं।

केरल के वेनद में आयोजित दिव्य सत्संग में भाग लेने व गुरुजी से मिलने हम चारों सड़क मार्ग से गये। कार्यक्रम के अंतिम दिन हम वहाँ से लौटने के लिये सुबह ही चले, क्योंकि यात्रा तेरह घंटे की थी। जाने से पहले गुरुजी के दर्शन करने की इच्छा से हम लोग प्रात: काल लगभग 6:50 पर उनके कुटीर पहुँच गये। दरवाजा बंद था। हम पास ही खड़े प्रतीक्षा करने लगे। तभी मेरी छोटी बेटी निवेदिता जोर से बोली '' देखो - गुरुजी '' गुरुजी हमारे पीछे खड़े थे। उन्होंने पूछा ''क्या तुम वापस जा रहे हो ? गाड़ी सावधानी से चलाना'' यह कहकर वे वहाँ से ऐसे निकल गये मानो ग़ायब हो गये हों।

सफ़र करते करीब नौ घंटे बीत चुके थे। सूरज आम के वृक्षों को छूता हुआ डूब रहा था। मैं अपने विचारों में खोया हुआ था। इस मनमोहक दृश्य के बीच में, एक जुलूस हमारी ओर बढ़ रहा था। हमारी गाड़ी को एक गली की ओर मोड़ दिया गया। उस गली में भी लोग भरे हुए थे। भीड़ उत्तेजित होने लगी। हमारी गाड़ी उस जाम में सबसे आगे थी। मेरे मन ने कहा कि मैं वहीं रुक जाऊँ पर मैं गाड़ी को आगे बढ़ाता चला गया। तभी एक युवक एक बड़ा सा डंडा लेकर गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। उसने डंडे को बोनट पर ज़ोर से मारा। पर कोई आवाज़ नहीं हुई, डंडे ने गाड़ी को छुआ तक नही। भीड़ अचानक साफ़ हो गई और मैंने गाड़ी का एक्सेलेरेटर दबाया और आगे बढ़ गया।

यात्रा
मुझे नहीं पता, ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने मेरी तरह अति दरिद्रता से सम्पन्नता का अनुभव किया है। मैं एक मेहनती, किंतु विद्रोही, अभिमानी व नास्तिक स्वभाव का व्यक्ति था।

मैंने स्वामी चिन्मयानन्द, भगवान रजनीश, दीपक चोपड़ा इत्यादि को अपने खाली समय में सुनने व पढ़ने की चेष्टा की। दिसम्बर 1998 में मुझे 'बैंग ऑन द डोर' जो मेरी पत्नी चिन्मयी ने खरीदी थी, पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक से मैं बहुत प्रभवित हुआ और मुझे लगा कि इसका लेखक बहुत बुध्दिमान व ज्ञानी है।

अगले सप्ताह, जनवरी 1999 में मैंने समाचार पत्र में एक छोटा सा विज्ञापन देखा कि ''आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स आज से।'' मैंने पत्नी से कहा कि मैं यह कोर्स अवष्य करूंगा। मैं जानना चाहता था कि इतना विलक्षण व बुध्दिमान व्यक्ति मुझे जीने की कला कैसे सिखायेगा ? मैं जब एयरलाइन्स में था तब मैंने कई व्यक्तित्व विकास के कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था। लेकिन इस 6 दिन के कोर्स का हर एक दिन अद्भुत था। कोर्स ने मेरे जीवन में एक स्थायी बदलाव किया व जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया। मैं 'सामान्यत: क्रोधित और तनावग्रस्त' न रहकर 'सामान्यत: प्रसन्न' रहने लगा।

कोर्स करने के तीन सप्ताह के भीतर मैं आश्रम में एडवांस्ड कोर्स करने पहुँच गया। वहाँ गुरुजी भी थे। मैं उनसे मिला और पहली बार मुझे जो अनुभव हुआ उसे शब्दों में 'उन्मुक्त प्रेम' ही कहा जा सकता है। उनकी सादगी, निर्दोष भाव, प्रेम, सब कुछ शब्दों के परे था। मैंने घर लौटकर ऐसा अनुभव किया, मानो मैं स्वर्ग से लौट कर आया हूँ। लौटने के बाद मेरे व्यापार में व्रिद्धि होने लगी। मुझे अपने परिवार (मेरी पत्नी व दो बेटियॉ, गायत्री और निवेदिता ) के साथ बिताने के लिये समय मिलने लगा और, शादी के 18 वर्षो के बाद घर स्वर्ग बन गया।

मैं अगस्त 1999 में बेसिक कोर्स (अब पार्ट-1 कोर्स) का प्रशिक्षक बन गया और अब मैं गुरुदेव का निमित्ता हूँ। 6 दिन में उनकी कृपा से कैसे कोर्स में आये हुए लोगों का दु:ख दूर हो जाता है, यह देखकर आश्चर्य होता है। और जैसे-जैसे मैं शिविरों में अधिक से अधिक समय देता जाता हँ, मैं एक विचित्र बात का अनुभव करता हँ - मेरे व्यवसाय में व्रिद्धि, तथा मेरे कार्यभार में अत्याधिक कमी। मेरी ज़िम्मेदारी श्री श्री ने ले ली है। जीवन ज्वरता व व्यर्थ चेष्टाओं से मुक्त हो गया है।

स्मृति के खेल
दिसम्बर 1999 में मैंने गुरुजी से कहा कि मुझसे सहजता से घ्यान नहीं होता। कई महीने बीत गये, और मैं इस बात को भूल गया। एक साल के बाद, मैं उनसे कोट्टायम के सत्संग में मिला। जब मैं उनके कमरे से बाहर जा रहा था, उन्होंने मुझे रुकने का इशारा किया और रघु जी मेरे लिये गुरुदेव के घ्यान की सी.डी. लेकर आये। जो व्यक्ति हर सप्ताह हज़ारो लोगों से मिलते हैं, जो विश्व भर का भ्रमण करते हैं- वे हम सबकी छोटी-छोटी आवश्यकताओं का कितना ख़याल रखते हैं।

ऐसा माना जाता है कि अध्यात्मपथ पर अग्रसर होने के लिये हमें अपने दायित्वों से मुँह मोड़ना पड़ता है। परंतु मैं तो संसार में रहते हुए तथा अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करते हुए श्री वृध्दि, स्वास्थ्य वृध्दि, आनन्द वृध्दि या कहें तो सर्व समृध्दि का प्रतिपल अनुभव कर रहा हँ।