October 25, 2008

दिवाली ज्ञान के प्रकाश का उत्सव

दिवाली ज्ञान के प्रकाश का उत्सव - श्री श्री रवि शंकर

दिवाली, जिसे सम्पूर्ण विश्व में प्रकाश के त्योहार के रूप में जाना जाता है, बुराई पर अच्छाई की, अन्धकार पर प्रकाश की तथा अज्ञान पर ज्ञान की  विजय का त्योहार है। आज के दिन घरों में रोशनी न केवल सजावट के लिये होती है, किंतु यह जीवन के अथाह सत्य को भी अभिव्यक्त करती है। प्रकाश अन्धकार को मिटा देता है, और जब ज्ञान के प्रकाश से आपके अंदर का अंधकार मिट जाता है, आप में अच्छाई बुराई पर विजय प्राप्त कर लेती है।

वैसे तो इस उत्सव से संबंधित बहुत सी गाथाएं हैं, दिवाली मुख्यत: प्रत्येक ह्रदय में ज्ञान के प्रकाश को प्रज्जवलित करने के लिये मनायी जाती है, प्रत्येक घर में जीवन, प्रत्येक मुख पर मुस्कान लाने के लिये मनायी जाती है। दिवाली शब्द दीपावली का लघु रूप है, जिसका शाब्दिक अर्थ है प्रकाश की पंक्ति।  जीवन के बहुत से पहलु तथा स्तर होते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप उन सभी पर प्रकाश डालें क्योंकि यदि आपके जीवन का एक भी पहलु अंधकारमय होगा तो, आपका जीवन कभी भी पूर्णत: अभिव्यक्त नहीं हो सकेगा।  इसलिये दिवाली में दीपों की पंक्तियाँ प्रज्जवलित की जाती हैं कि आप को ध्यान रहे कि आपके जीवन के प्रत्येक पहलु को आपके ध्यान की तथा ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता है। 

आपके द्वारा प्रज्ज्वलित प्रत्येक दीप, सद्गुण का प्रतीक है। प्रत्येक मनुष्य में सद्गुण होते हैं। कुछ में धैर्य होता है, कुछ में प्रेम, शक्ति, उदारता, अन्य में लोगों को संगठित करने की क्षमता होती है। आप में स्थित अप्रकट मूल्य दिये के समान हैं। जैसे ही वह प्रज्जवलित हो जाएँ, जागृत हो जाएँ, दिवाली है। केवल एक ही दीप जला कर संतुष्ट न हों; हज़ार दीप प्रज्जवलित करें। यदि आप में सेवा भाव है, केवल उससे ही संतुष्ट न हों, अपने में ज्ञान का दीप जलाएँ, ज्ञान अर्जित करें। अपने अस्तित्व के सभी पहलुओं को प्रकाशित करें।

दिवाली का एक और गूढ़ रहस्य पटाखों के फूटने में है। जीवन में आप कई बार पटाखों के समान होते हैं, अपनी दबी हुई भावनाओं, हताशा तथा क्रोध के साथ फूट पड़ने के लिये तैयार। जब आप अपने राग, द्वेष, घृणा को दबाए रखते हैं वह फूट पड़ने की सीमा पर पहुँच जाता है। पटाखे फोड़ने की क्रिया का प्रयोग हमारे पूर्वजों द्वारा, लोगों की बाधित भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिये, एक मनोवैज्ञानिक अभ्यास के रूप में किया गया। जब आप बाहर विस्फोट देखते हैं तो आप अंदर भी वैसी संवेदनाओं का अनुभव करते हैं। विस्फोट के साथ बहुत सा प्रकाश निकलता है। जब आप अपनी दबी हुई भावनाओं से मुक्त होते हैं तब आप खाली हो जाते हैं तथा आप में ज्ञान के प्रकाश का उदय होता है।

ज्ञान की सभी जगह आवश्यकता है। यदि परिवार का एक भी व्यक्ति अंधकार में है, आप खुश नहीं रह सकते। अत: आप को अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य में ज्ञान का प्रकाश स्थापित करना होगा। इसे समाज के प्रत्येक सदस्य तक ले जाएँ, पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाएँ।

जब सच्चा ज्ञान उदित होता है, उत्सव होता है। अधिकतर उत्सव में हम अपनी सजगता अथवा एकाग्रता खो देते हैं। उत्सव में सजगता बनाए रखने के लिये, हमारे ऋषियों नें प्रत्येक उत्सव को पवित्रता तथा पूजा विधियों से जोड़ दिया है। इसलिये दिवाली भी पूजा का समय है। दिवाली का आधात्मिक पहलु, उत्सव में गाम्भीर्य लाता है। प्रत्येक उत्सव में आध्यात्म होना चाहिये क्योंकि आध्यात्म के बिना उत्सव छिछला होता है।

उत्सव चेतना का स्वभाव है तथा उत्सव का प्रत्येक कारण अच्छा है। उत्सव में आप केवल नाचे गाएं नहीं, बल्कि स्वयं को ज्ञान के प्रति भी सजग रखें। जो ज्ञान में नहीं हैं उनके लिये वर्ष में एक बार ही दिवाली आती है, किंतु जो ज्ञानी हैं उनके लिये प्रत्येक दिन, प्रतिक्षण उत्सव है। ज्ञानी बनें तथा अपने जीवन के प्रत्येक क्षण, प्रत्येक दिन को उत्सव बना लें।  

October 24, 2008

प्रेम और अधिकार

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 318
16 अगस्त, 2001
बैंगलौर आश्रम
भारत

प्रेम और अधिकार
प्रेम और अधिकार एक दूसरे के पूर्णतः विपरीत मूल्य हैं फिर भी वे एक साथ विद्यमान रहते हैं। चेतना जितनी अधिक स्थूल होती है अधिकार उतना ही अधिक प्रबल दिखता है। चेतना जितनी अधिक परिष्कृत और सूक्ष्म होती है अधिकार के प्रयोग की उतनी ही कम आवश्यकता होती है। जब तुम स्थूल होते हो, तुम अधिकार की माँग करते हो, और अधिकार माँगने से प्रेम कम हो जाता है। अधिकार जमाना प्रेम और आत्मविश्वास की कमी का द्योतक है। अधिकार की भावना जितनी प्रबल होगी तुम उतने ही कम संवेदनशील और प्रभावशाली होगे। एक समझदार व्यक्ति कभी भी अपने अधिकार की माँग नहीं करेगा... बल्कि अपने अधिकार को पहले से मान कर चलेगा। (हँसी) सबसे प्रभावशाली सी.ई.ओ. अपने अधिकार को कभी महसूस नहीं होने देते क्योंकि अधिकार से अंतरप्रेरणा कभी भी प्रस्फुटित नहीं होती।
तुम्हारे बॉस के मुकाबले एक ईमानदार नौकर का तुम्हारे ऊपर अधिकार कहीं अधिक होता है, है न? एक शिषु का अपनी माँ के ऊपर पूर्ण अधिकार होता है। इसी प्रकार एक भक्त का परमात्मा के ऊपर पूरा अधिकार होता है, हालांकि वह कभी भी उसका प्रयोग नहीं करता।
अत: तुम जितने अधिक सूक्ष्म होगे उतना ही ज्यादा अधिकार तुम्हें प्राप्त होगा। प्रेम जितना अधिक होगा अधिकार उतना ही सूक्ष्म होगा। प्रेम जितना कम होगा अधिकार उतना ही अधिक प्रबल होगा।

दो परिप्रेक्ष्य से गुरु

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 317

9 अगस्त, 2001

यूरोप आश्रम, बैड एन्टोगास्ट

जर्मनी

 

दो परिप्रेक्ष्य से गुरु

पूर्वी संस्कृति के देशों में, गुरु का होना एक गर्व का विषय माना जाता है। गुरु प्रेम और सुरक्षा के प्रतीक हैं और एक बड़ी सम्पत्ति के द्योतक हैं। गुरु का सानिध्य अपने आत्म तत्व के साथ रहने के तुल्य माना जाता है। जिनके पास गुरु नहीं हैं उनको निम्न दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें अनाथ, दरिद्र और अभागा समझा जाता था। संस्कृत में अनाथ माने जिसका नाथ न हो। जिनके गुरु नहीं होते थे उन्हें अनाथ कहा जाता था, न कि उन्हें जिनके माता-पिता नहीं होते।

 

परन्तु पश्चिम संस्कृति के देशों में मास्टर का होना शर्म की बात है और दुर्बलता का प्रतीक है, क्योंकि वे लोगों को अपने आधीन दास बनाने के लिये जाने जाते हैं।

 

पूर्वी संस्कृति में गुरू का होना गर्व समझा जाता है और जीवन के हरेक पहलु में गुरु हैं - धर्म के लिए धर्मगुरु, कुल के लिए कुलगुरु,  राज्य के लिए राजगुरु, किसी विषय के अध्ययन के लिए विद्यागुरुऔर आध्यात्म के लिए सद्गुरु. पूर्वी संस्कृति में गुरु आपको शक्तिशाली महसूस कराते हैं; जबकि पश्चिमी संस्कृति में मास्टर आपको कमज़ोर बनाते हैं। पूर्वी संस्कृति में एक अपनेपन की गहरी भावना होती है जो व्यक्ति को अपनी सीमित पहचान घुलाकर अनन्त के साथ एक होने के सक्षम बनाती है। परन्तु पश्चिमी संस्कृति में गुरु एक प्रेरक और प्रतिस्पर्धा बढ़ाने वाला समझा जाता है।

कौन किसको खुश कर रहा है?

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 316

2 अगस्त, 2001

यूरोप आश्रम, बाद एन्टोगास्ट

जर्मनी

 

कौन किसको खुश कर रहा है?

परमात्मा ने इस संसार और मनुष्य की संरचना बड़ी विविधता और अच्छी चीज़ों के साथ करी है।  मनुष्य के मनोरंजन के लिए और उसे खुश करने के लिए परमात्मा ने अनेक प्रकार की सब्जियाँ, सुगन्ध, फूल और काँटे, राक्षस और भयानक दृश्य बनाए हैं। 

परन्तु मनुष्य तो और भी अधिक अवसादग्रस्त होता गया। तब फिर परमात्मा को सख्त होना पड़ा और मनुष्य ईश्वर को खुश करने में जुट गया। और इस तरह ईश्वर को प्रसन्न रखने में मनुष्य व्यस्त हो गया, और इसमें ज्यादा खुश रहने लगा क्योंकि उसके पास चिन्ता और तनाव के लिये समय ही नहीं बचा। 

इसलिये, अगर  तुम्हारे पास कोई खुश रखने के लिये है तब तुम सतर्क रहते हो और् तुम अधिक खुशी महसूस करते हो। परन्तु यदि तुम्हारा ध्येय केवल अपने आपको खुश रखना हो तब निश्चय ही तुम अवसादग्रस्त हो जाओगे। आनन्दभोग बस और अधिक लालसा को ले आता है। परन्तु समस्या यही है कि हम सुखों के द्वारा तृप्त होने की चेष्टा करते हैं। सच्ची तृप्ति केवल सेवा के माध्यम से ही मिल सकती है।