October 20, 2010

भौतिक सम्पन्नता एवं आध्यात्मिक उन्नति का रहस्य

 
ज्ञान पत्र तिथि : 2010-10-13
स्थान : बंगलौर आश्रम, भारत
नवरात्रि उत्सव के दौरान चल रहे यज्ञों के महत्व के बारे में श्री श्री बताते हुए -   
अस्तित्व के तीन स्तर हैं  बाहरी स्थूल जगत, विभिन्न शक्तियों का सूक्ष्म जगत  और देवत्व या भगवान. यहाँ पर कराये गए सभी यज्ञों का उद्देश्य आध्यात्मिक और भौतिक लाभ दोनों प्राप्त करना है. जब तुम अपनी गहराइयों में डूबते हो, जो सब का स्रोत है, तुम परम शान्ति का अनुभव करते हो.  जब तुम गहरे ध्यान की अवस्था में रहते होतभी इन मंत्रों का प्रभाव पड़ता है. वह बहुत ही शक्तिशाली और सुंदर हैं और वे सूक्ष्म जगत को समृद्ध करते हैं. हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें  इसका हिस्सा बनने का मौक़ा मिला.
यहाँ पर सभी वेदों के पंडित हैंऔर वे मंत्र उच्चारण करेंगे. यह हजारों साल से होता आ रहा है. ऐसा पूरे विश्व के कल्याण के लिये किया जाता है. हम सभी यहाँ पर एक शरीरएक मन और एक आत्मा के रूप में एकत्रित हुए हैं, और यहाँ जो हो रहा है उसमें पूर्ण रूप से निमग्न हैं.  चाहे हम इनका अर्थ नहीं भी जानते हों तब भी हम जानते हैं कि सूक्ष्म स्तर पर ये हमारे जीवन और पूरी मानवता के लिए कुछ अच्छा है.
हो सकता है कि हमारी बुद्धि इसको समझ न पाये परन्तु हमारा सूक्ष्म शरीर इसकी गहराई को समझता है. और जो स्पंदन यहाँ से निकल रहे हैं वे अस्तित्व के सभी सूक्ष्म परतों के लिये कल्याणकारी हैं.  इस ऊर्जा से परोपकार होता हैपूरी मानवता का कल्याण होता हैहमारे बुरे कर्म कट जाते हैंविश्व में सद्भाव बढ़ता है और मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. इच्छाएं पूर्ण होने के लिये सूक्ष्म स्तर में शक्ति होनी  चाहिए. यह हमें आत्म बोध के पास लाता है और दुनिया में सफल बनाता है.
एक शरीर और एक मन के रूप मेंपरम सत्य में स्थित होकरअपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को पूरा करते हुए शांति की गहराई में विश्राम करो. इस प्रेम और भक्ति में डूब जाओ और यह भावना रखो कि सब कुछ अच्छा हो रहा है, सब कुछ आप के लिए हो रहा है. मकई की तरह - जब वह थोड़ा गर्म किया जाता हैतब वह फूट कर पॉप कॉर्न बन जाता है. उसी प्रकारयह चेतना दिव्य है और मंत्र के जप से यह कुसुमित होकर प्रकट होती है. चेतना को खिलाने के लिये यह एक सुंदर अवसर है. ओम शांति!

September 16, 2010

September 2, 2010

कृष्ण का प्रेम अद्वितीय है

परम पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी

कृष्ण का ज्ञान, माधुर्य और प्रेम अद्वितीय था। किसी भी दृष्टिकोण से उनका व्यक्तित्व पूर्ण था और अनूठा था। यह बताता है कि यह सब गुण आपके अंतर तम में हैं ठीक उसी प्रकार से जैसे सूर्य की किरण में सभी रंग हैं।

पांडवों की माँ महारानी कुंती ने एक बार कृष्ण से कहा, "काश मेरे पास और अधिक परेशानियाँ होतीं। जब भी मैं किसी मुसीबत में थी, तुम हमेशा मेरे साथ थे। तुम्हारे साथ से मिलने वाला आनंद किसी और सुख सुविधा या आराम के आनंद से कहीं अधिक है। मैं कोई भी दुःख सह सकती हूँ। मैं तुम्हारी उपस्थिति के एक पल के बदले में इस दुनिया के सभी सुखों को छोड़ सकती हूँ।"

कृष्ण ने उनको आत्मज्ञान अधिक दिया -  "मैं तुम्हारे अन्दर तुम्हारे स्वयं के रूप में ही हूँ। इस दुनिया में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ मैं नहीं हूँ। लोग मुझे एक भौतिक शरीर के रूप में देखते हैं पर वे मेरे सच्चे स्वरुप को नहीं जानते। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - यह शरीर इन आठ तत्वों से बना है। मैं नौवा हूँ और इन सब से परे हूँ। मैं सर्वव्यापी हूँ। मूर्ख लोग यह नहीं जानते। उन्हें लगता है कि मैं एक मानव हूँ। हालांकि मैं शरीर में हूँ, परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ। हालांकि मैं मन के माध्यम से काम कर रहा हूँ, परन्तु मैं मन नहीं हूँ। जैसा मैं तुम्हें दिखता हूँ वह मैं नहीं हूँ, अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जितना तुम मुझे जान पायी हो उससे मैं कहीं अधिक हूँ। मैं तुम्हारे दिल में तुम्हारे स्वयं के ही रूप में उपस्थित हूँ और जब कभी भी तुम्हें मेरी आवश्यकता होगी, मैं वहाँ रहूँगा। मैं तुरंत तुम्हारे पास आ जाऊँगा, तुमको सभी परेशानियों से बाहर निकालूँगा, तुम हमेशा मुझ पर भरोसा कर सकती हो।"

यहां तक कि संतजन भी कृष्ण के प्रेम में डूब गए। वैरागी जन भी उनकी ओर खिंचे चले जाते थे। कृष्ण शब्द का अर्थ है कि जो आकर्षक है, जो कि सब कुछ अपनी और खींचता है। हमारे अस्तित्व का अंतरतम स्तर ऐसा ही है - आत्मा का सुख और परमानंद कुछ ऐसा ही है। वह सब कुछ अपनी और आकर्षित करता है। कृष्ण के जन्म का प्रतीकवाद भी बहुत सुंदर है। देवकी - शरीर, वसुदेव - प्राण यानि सांस एक होकर कृष्ण - यानि भीतर के आनंद और खुशी को प्रकट करते हैं।

कृष्ण हमेशा नीले रंग में दर्शाये जाते हैं। इसका अर्थ है कि शरीर इतना पारदर्शी है, कि उसका अस्तित्व लगभग न के बराबर है। जो अनंत है उसे नीले से दर्शाया जाता है; आकाश नीला है, और समुद्र नीला है। खुद कृष्ण गीता में कहते हैं -  "लोग मेरे सच्चे स्वभाव को नहीं जानते। कोई भी नहीं जानता।  उनके पूरे जीवन काल में केवल तीन लोग ही उनके सच्चे विराट स्वरुप को जान पाये। पहली यशोदा थीं, दूसरे अर्जुन और तीसरे व्यक्ति उनके बचपन के दोस्त उद्धव थे। वे गीता में कहते हैं, "लोग मुझे भौतिक रूप - एक शरीर के रूप में समझते हैं। मैं शरीर नहीं हूँ, मैं चेतना हूँ जो सर्वव्यापी है और सब में मौजूद है। वे आगे कहते हैं, "मैं चीनी में मिठास हूँ, मैं चाँद में चाँदनी हूँ, मैं धूप में गर्मी हूँ।" उन्होंनें अपने आप को सर्वव्यापी कहा ।
कृष्ण हमेशा एक पैर को जमीन पर मज़बूती के साथ जमा कर खड़े होते हैं, और उनका दूसरा पैर तिरछा रहता है जो कि ऐसा प्रतीत होता है कि वह ज़मीन छू रहा है लेकिन वास्तव में वह नहीं छू रहा होता है। वह कहीं और है। इसे त्रिभंगी मुद्रा कहा गया है। इसका तात्पर्य है जीवन में सम्पूर्ण संतुलन होना।

कृष्णा को माखन चोर कहा गया है। मक्खन दूध का अंतिम उत्पाद है। दूध में जामन डालने से दही जम जाती है और दही को अच्छी तरह से मथ कर मक्खन निकलता है। जीवन भी मंथन की एक प्रक्रिया है। आपके मन में भी बहुत सी बातों द्वारा मंथन हो रहा है - घटनाओं, परिस्थितियों और वाकयों से।

अंत में मक्खन निकलता है जो कि आपका सतचित स्वरुप है। और कृष्ण नवनीत चोर हैं चितचोर हैं। इसका क्या अर्थ  है? वह प्रेम करते हैं सच्चिदानंद स्वरुप से, वह उस चित से प्रेम करते हैं जो मक्खन जितना नरम हो, जो सख्त न हो। जब तुम्हारा मन ऐसा बन जाता है तब वे तुमको पसंद करने लगते हैं। इसका अर्थ है कि तब अनन्तता तुम्हारी ओर बढ़ने लगती है, वह तुमसे इतना प्यार करती है कि तुम्हारे चित को तुमसे किसी भी कीमत पर चुरा लेती है। वह तुम्हें ढूँढ रहे हैं। तुम जहाँ कहीं भी हो, भगवान आते हैं और तुम्हें ढूंढ लेते हैं।

कृष्ण सभी संभावनाओं के प्रतीक है, मानव के सभी कलाओं और दिव्यता के पूर्ण विकसित स्वरुप के प्रतीक हैं। वास्तव में कृष्ण के व्यक्तित्व को समझना बहुत मुश्किल है। ऋषियों ने उन्हें पूर्ण पुरुष और सभी कलाओं से सम्पन्न दिव्यता का एक सम्पूर्ण अवतार बताया है क्योंकि जो कुछ भी किसी मानव में हो सकता है वह सब कृष्ण में मौजूद है।

जन्माष्टमी वह दिन है जब आप अपनी स्वयं की चेतना में एक बार फिर कृष्ण के विराट स्वरूप को सजीव कर लेते हैं। अपने सत्य स्वरुप को अपने दैनिक जीवन में प्रकट करना ही कृष्ण जन्म का सच्चा रहस्य है।

August 30, 2010

क्रिस कपीला

क्रिस कपीला, सीऐटिल, अमरीका के एक सॉफ्टवेयर कन्सल्टेन्ट हैं।

वह विशेष कलीनेक्स -
       1993 की गर्मियों में, लेक जेनिवा (विस्कॉन्सिन) में आयोजित, गुरुदेव, के सान्न्ध्यि में हुए सप्ताह भर के कोर्स को करने के बाद हम लोग वैनकूवर (कनाडा) पहुँचे। कहने की जरूरत नहीं, पर फिर भी, वह कोर्स जीवन बदलने वाला था, अगर कहें कि कोर्स करके पुनर्जन्म हो गया तो गलत नहीं होगा।

       उस कोर्स में गुरुजी के आस-पास हर क्षण इतनी भीड़ होती थी कि मैं उनसे कुछ बोल ही नहीं पाता था। मुझे उनके साथ कुछ क्षण अकेले में बात करने की तीव्र इच्छा थी। परंतु शायद उस कोर्स में हर कोई यही चाहता था, और मुझे अपनी इच्छा की पूर्ति असंभव लगने लगी।

       वैनकूवर में, गुरुजी एक हिन्दू मंदिर में रविवार की प्रात: कालीन पूजा में प्रवचन देने गये। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद और लोग तो दोपहर का भोजन करने चले गये, पर मैं उनकी फ़ोटो खींचने की मंषा से वहीं खड़ा रहा।

       लगभग दस मिनट के बाद गुरुजी के साथ थोड़े से ही लोग थे, जो उनसे बात कर रहे थे। बाद में वे लोग भी चले गये और मैं अकेला, उनके साथ, उनके कमरे में रह गया।

       मैं संकुचाया सा वहाँ खड़ा था। गुरुजी उस हॉलनुमा कमरे में टहलते हुए कुछ वार्तालाप कर रहे थे। मेरे पास पहुँचते ही उन्होंने मुझसे पूछा कि मुझे कोर्स कैसा लगा। मैंने उनसे कहा कि मुझे कोर्स बहुत अच्छा लगा और उन्होंने मेरे और मेरे प्रियजनों के लिये अब तक जो कुछ भी किया, उसके लिये मैं बहुत कृतज्ञ हँ। यह कहते-कहते मैं फूट-फूट कर रो पड़ा। उन्होंने मुझे उनके पीछे-पीछे मंच तक आने का संकेत किया और वहाँ मुझे एक टिषू पेपर (क्लीनेक्स) दिया, जिसकी उस समय (कहने की जरूरत नहीं) मुझे बहुत ज़रूरत थी। यह मेरा पहला अनुभव था कि गुरुदेव कैसे हम में से प्रत्येक की छोटी से छोटी आवष्यकताओं के प्रति अपना ध्यान रखते हैं।

       उस पहली रूबरू मुलाक़ात के बाद मेरा जीवन बहुत बदल गया है। अब जीवन में केवल आनंद ही आनंद हैं, प्रेम ही प्रेम है।

1100 किसानों को मिला जैविक खेती का प्रशिक्षण

बैंगलोर, अगस्त 25, 2010:
पूरे भारत में जैविक कृषि के विस्तार के लिए प्रशिक्षित किसानो का एक जत्था तैयार करने के लिए आर्ट आफ लिविंग ने एक पांच दिवसीय टीचर्स ट्रेनिंग कार्यक्रम का आयोजन किया। पांच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आर्ट ऑफ लिविंग के अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बैंगलोर में 21 अगस्त शनिवार को से आरंभ हो कर बुधवार 25 अगस्त 2010 को समाप्त हुआ जिसमें 15 राज्यों से 1100 किसानों ने जिनमें 100 महिलायें भी शामिल है, ने भाग लिया।

यह प्रशिक्षण कार्यक्रम संभागियों को इस बात के लिए सक्षम बनायेगा कि वे जैविक कृषि के
तंत्र को आगे दूसरे किसानों समझा सके। इस प्रभावी लागत तकनीक के अतिरिक्त किसानों
को अन्य कई किसानों के लिए उपयोगी तकनीकें जैसे उद्यान संबंधी, देशी गायों का कृषि में
उपयोग, जल संरक्षण और जल संसाधनों के बारे में भी प्रशिक्षण दिया गया है। किसानों अन्य
कृषि संबंधी विकास कार्यक्रमों की जानकारी दी गई है।

श्री सुभाष पालेकर, शून्य बजट कृषि के संस्थापक ने अपनी जानकारियां किसानों के साथ
बांटी साथ ही किसानों को कम से कम लागत से अधिक से अधिक पैदावार कैसे प्राप्त की जा
सकती है, बताया। साथ ही किसानों को रसायनिक खेती से होने वाली बिमारियां जैसे कैंसर
आदि के बारें में शिक्षित किया।

'' रसायनिक खेती हमारे इको सिस्टम के लिए खतरनाक है। प्राकृतिक तकनीक को अपनाकर
किसान एक ही वर्ष में इसके अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकतें हैं। उपज उच्च गुणवत्ता की
होगी और ज्यादा गुणकारी एवं स्वादिष्ट होगी। किसानों को जो आज मूल्य मिल रहा है उसे
दुगुना मूल्य मिलेगा। साथ ही प्राकृतिक खेती जलवायु परिवर्तन और ग्लॉबल वार्मिंग को भी
संतुलित करती है और प्राकृतिक संसाधनों को भी बचाती है।'' श्री पालेकर ने कहा।

गणेशम् चौपडे, वर्धा महाराष्ट के एक किसान ने कुछ वर्ष पूर्व ही प्राकृतिक खेती को अपनाया
है और अपने जीवन स्तर में अनेक प्रकार से सुधार किया। '' मैं रसायनिक खेती के कारण 12
लाख के कर्ज से दबा हुआ था और इससे मेरा स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा था। जब से मैंने
प्राकृतिक खेती को अपनाया है मैंने सारे कर्ज उतार दिये और मेरे परिवार को पहले से अच्छा
खाना, कपड़े और मकान बनाकर दिया है।''

किसानों ने कम से कम एक एकड़ भूमि पर प्राकृतिक खेती करके इसे अपने गांव के अन्य
100 किसानों को दिखाकर अपनाने हेतु अपील की शपथ ली।

ऐसे समय में जब ग्लॉबल वॉर्मिंग के खतरे से जलवायु को खतरा हो रहा है, आर्ट आफ
लिविंग ने अन्य प्रकार के भी कार्यक्रमों के साथ साथ इस कार्यक्रम का भी शुभारंभ कर
जलवायु के संरक्षण के लिए सार्थक कदम बढाया है। ये प्राकृतिक और रसायनमुक्त खेती के
साथ साथ, वर्षा जल संरक्षण पर कार्य कर रही है। अब तब भारत के 6000 किसानों को
रसायन मुक्त खेती का प्रशिक्षण दिया जा चुका है।

August 25, 2010

और भजन फूट पड़ा - इरावती कुलकर्णी

इरावती, पुणे की एक प्रतिभाशाली गायिका हैं। इन्होने संस्कृत साहित्य में स्नातक किया है।

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं भजन कैसे बनाती हँ। मुझे संगीत की रचना करने का कोई अनुभव नहीं हैं और न ही मुझे इस क्षेत्र की कोई विशेष जानकारी है। और मैं उनके भजनों का माध्यम होने पर अपने आपको धन्य मानती हँ। पहला भजन जो मेरे माध्यम से निकला वह था 'परमेश्वरी जय दुर्गा' जो नवरात्रि के दौरान की गई एक विरह पूर्ण प्रार्थना के बीच उदय हुआ। मैंने बंगलोर आश्रम में नवरात्रि में होने वाली पूजाओं के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था और मैं वहाँ जाना चाहती थी, पर जा नहीं पा रही थी। हाँलाकि मैं मुम्बई में थी पर मेरा मन आश्रम में था और ऐसी ही एक रात में नींद में मैंने यह भजन सुना। मैं मध्यरात्रि में ही उठ कर इस भजन को ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी। शब्द और सुर दोनों मेरे नहीं थे। यह केवल दैवी कृपा थी जो मुझ पर हुई और इस प्रकार पहले भजन का जन्म हुआ।

इस वर्ष के शिवरात्रि उत्सव में, मैंने मन ही मन सत्संग के बीच में गुरुजी से प्रार्थना की कि वे मुझे एक भजन दें जिसे मैं उन्हें सुना सकूँ। कुछ मिनटों के अन्दर ही, एक शिव भजन का जन्म हुआ, और जैसे ही उस सत्संग में मैंने उसे गाना शुरू किया, गुरुदेव भी मेरे साथ गाने लगे। सभी आश्चर्य में उनकी ओर देख रहे थे कि इस भजन को तो पहली बार गाया जा रहा है फिर गुरुदेव कैसे इसके बोल जानते हैं ?

मेरे लिये तो गुरुजी माता, पिता मित्र, गुरु, यह सब कुछ तथा और बहुत कुछ हैं। उन्होनें मुझे अपूर्व साहस दिया है, मैं अपनी सीमितताओं से छूट गयी हँ। और उनकी कृपा, तथा असीमित प्रेम, दया व धैर्य से यह पूरी प्रक्रिया अत्याधिक सरल हो गयी है।

छः महीने बाकी - श्याम सदाना

श्याम सदाना हरियाणा भारत के एक उद्योगपति हैं। इनकी कई सफ़ल कंपनियाँ है। साथ-साथ उन्होंने अपने गृह राज्य में कई सेवा कार्यक्रम आरंभ किये है। 

जबसे मैंने जीवन के चौथे दषक में कदम रखा, तब से मैं हदय रोगी रहा। मुझे ऐंजाइना के साथ, उच्च रक्त चाप व हाइपरटेन्षन भी था जिसके कारण मुझे बहुत सावधानी व परहेज़ करना पड़ता था। अड़तालीस वर्ष की आयु में मुझे दिल का दौरा पड़ा और तब से ही मुझे काफ़ी दवाईयाँ लेनी पड़ती थी। छप्पन वर्ष की आयु में पहली बार मेरे हदय का ऑपरेषन हुआ जब मेरी धमनियाें में रूकावट (ब्लॉकेज) पायी गयी। फरवरी 1998 में जब मुझे साँस लेने में अत्याधिक कष्ट होने लगा, तब मैंने विस्तृत जाँच करवायी। परीक्षणों से पता चला कि मैं मृत्यु की दहलीज़ पर खड़ा हुआ था। सभी डॉक्टरो ने मुझे जीने के लिये केवल 6 महीने दिये थे। मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने, यहाँ तक कि कमरे से बाहर जाने से भी मना किया गया था। कुछ कदम चलते ही मैं हाँफ़ने लगता था।

अपनी इस अवस्था में मैंने मई 1999 में संडे नामक पत्रिका में बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स के बारे में पढ़ा। मैंने आर्ट ऑफ लिंविंग के बेसिक कोर्स के षिक्षक नित्यानन्द से संपर्क किया। मैंने उन्हें अपनी परेषानी से अवगत कराया और उसके अगले सप्ताह ही बेसिक कोर्स किया। कोर्स के बाद, मेरी हालत में ज़बरदस्त सुधार हुआ। मैं चल-फिर सकता था और मेरे स्वास्थ्य में भी काफ़ी सुधार हुआ।

मैं ऋषिकेष में एडवांस्ड कोर्स करना चाहता था, इसलिये जुलाई में मैं अपने डॉक्टर के पास अपनी जाँच कराने गया, ताकि जान सकूँ कि मैं सफ़र करने लायक हँ कि नहीं। मेरी जाँच करके मेरे डॉक्टर अचंभे में पड़ गये। उन्होंने मुझसे पूछा ''क्या यह वहीं दिल है जिसकी मैंने पिछले महीने जाँच की थी?'' मैं बोला ''हाँ, पर कुछ बदल गया है। मैं आपकी दवाईयाँ लेने के साथ साथ सुदर्र्षन क्रिया भी कर रहा हँ।'' यह सुनकर डॉक्टर साहब हँसने लगे।

एडवांस्ड कोर्स करने व गुरुदेव से मिलने से पहले ही मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया था। इस समय मुझे कोई भी तकलीफ़ नहीं है। मैं जर्मनी जाकर बर्फ से ढकी पहाड़ी ढलानाें पर चल आया हँ। मैं, जिसे जीने के लिये मात्र छह महीने दिये गये थे, वह भी एक पेड़ के सूखे तने की तरह, अब पिछले तीन साल से एक सामान्य जीवन जी रहा हैं। यह सब केवल गुरु कृपा है, कुछ और नहीं।

कार्यक्रम परिवर्तन - मधु राव

श्री मधु राव, हांगकांग के निवासी हैं। वे शांगरीला होटेल्स एण्ड रिज़ौर्टस, हांगकांग के मुख्य वित्तीय अधिकारी हैं 

अगस्त 2000 में मेरी पत्नी संध्या टीचर्स द्रेनिंग कोर्स के लिये बंगलोर गई थी। कुछ दिन बाद, उनके पिता, जिन्हें पहले भी लकवे के दौरे पड़ चुके थे, को एक और दौरा पड़ा। वे पूरी तरह से बिस्तर पर पड़ गये थे, हाथ पैर ठीक से चला नहीं पा रहे थे, लोगों को पहचान नहीं पा रहे थे और किसी की बातचीत भी नहीं समझ पा रहे थे। उनके लकवे के इतिहास को देखकर, डॉक्टर असमजंस में थे कि वे जीवित बचेंगे अथवा नही। मैं मानसिक द्वंद की स्थिति में था। अगर मैं संध्या को बताता, वो वह कोर्स छोड़ कर अपने पिता के पास चली आती, और अगर मैं न बताता, तो मैं अपनी दृष्टि में दोषी बन जाता।

अंत में मैंने आश्रम फ़ोन कर गुरुजी के लिये एक संदेष छोड़ा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे उत्तर मिला कि 'वह चाहे तो अपने पिता के पास जाये और फिर लौट कर आ जाये।' तब हमने संध्या को यह समाचार बताने का निर्णय किया। समाचार तथा गुरुजी का परामर्ष सुनने के बाद गुरुजी में अपनी अटूट आस्था के चलते संध्या को विष्वास हो गया की उनके पिता के साथ सब ठीक होगा। उन्होंने अपने पिता को फ़ोन किया, और आष्चर्य, वे उनकी आवाज़ पहचान गये। गुरुजी पर अपने पिता का दायित्व सौंप कर उन्होंने अपने प्रषिक्षण पर पूरा ध्यान लगाया। उनके पिता, जो पूरी तरह बिस्तर पर पड़े हुए थे, और शौचालय भी जाने में असमर्थ थे, अगले दो तीन दिन में आष्चर्यजनक प्रगति करने लगे और हफ्ते भर में ठीक हो गये। इस एक हफ्ते में ही उनमें इतनी शक्ति आ गई कि वे सपरिवार गुरुजी को अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने व आषीर्वाद लेने आश्रम पहुँच गये, और व्यक्तिगत रूप से गुरुजी से मिले। मैंने हौंगकौंग में, नवम्बर 1998 में बेसिक कोर्स किया था। विष्व भर में कई व्यक्तियों की तरह, मुझे भी कोर्स में एक ऐसा सुंदर अनुभव हुआ जो शब्दो में व्यक्त नहीं किया जा सकता। कुछ महीनों बाद, 1999 के आरंभ में, मुझे एक सपना आया जिसमें मैं गुरुजी से मिला और उन्होंने मुझे प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया। अप्रैल 1999 के आरंभ में, मैंने सुना कि गुरुजी सिंगापुर में कुछ समय के लिये पधारेंगे। मैं अपनी पुत्री व एक संबंधी के साथ, उनके दर्षन के लिये, सिंगापुर पहुँचा। वे भक्तों से घिरे हुए थे और मैं कुछ ही समय के लिये उनसे मिल पाया। पर उस पहली मुलाक़ात नें मुझमें उनसे और मिलने की इच्छा जगा दी।

उसी साल मई में, हमारी कम्पनी ने निवेषकाें से मिलने के लिये यूरोप व अमरीका में रोड षो करने की योजना बनाई। यह रोड षो, अगले महीने यानी जून से शूरू होने वाले थे। उसी समय, संयोगवष, मैंने अपने एक मित्र से सुना कि गुरुजी अमरीका में लेक टाहो जाने वाले थे। हमारा अधिकारिक पूर्व नियोजित कार्यक्रम, न्यूयॉर्क व बोस्टन में था, और हौँग कौग लौटते हुए बीच में कुछ समय के लौस ऐंजिलिस भी रुकना था। चूँकि लेक टाहो का इलाका लौस ऐंजिलिस से बहुत दूर था, मैं निराष हो गया। मुझे लगा कि अगर वहाँ कि बजाय सैन फ्रांसिस्को में मीटिंग होती तो अच्छा रहता क्योंकि वहाँ से लेक टाहो थोड़ी ही दूर है। मैंने अपनी यह इच्छा गुरुजी को समर्पित कर दी।

उसी दिन के बाद, अचानक, हमारे निवेष सलाहकारों ने कहा कि वे लॉस ऐंजिलिस के बजाय सैन फ्रांसिस्को मीटिंग करना ज्यादा पंसद करेगे। बस, मुझे मौका मिल गया।

मुझे गाड़ी चलाना नहीं आता था। मैं सोचने लगा कि लेक टाहो तक जाने के लिये किराये पर वाहन ले लूँ। तभी मुझे याद आया कि हमारे सी.ई.ओ. नें भी बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स किया था, क्यों न उनसे पूछ लूँ कि क्या वे गुरुजी से मिलना चाहेंगे ? वे सहर्ष मान गये और मेरे बिना पूछे ही उन्होंनें मुझे अपनी गाड़ी में साथ चलने को कहा।

जब हम लेक टाहो पहुँचे, हमारा स्वागत ताईपेई की कुमारी ऐलिस जेन ने किया। उन्होंने बताया कि गुरुजी हमारे आने की उम्मीद कर रहे थे। कुछ और भक्तों के साथ हम उनके कुटीर पहुँचे। मुझे बिलकुल गुरुजी के बगल में बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। फिर मैं आष्चर्यचकित रह गया जब गुरुजी ने मेरी मातृभाषा तेलगू में मुझसे बात की। मुझे उनसे बात करने में बहुत सहूलियत हुई। फिर उन्होंने हम सबको एक छोटा सा ध्यान कराया। जब हम लोग उठकर जाने बाले थे, तब गुरुजी ने बड़े प्रेम के साथ मुझे गले से लगा लिया, ठीक वैसे ही जैसा कि मैंने कुछ महीने पहले सपने में देखा था। मैं अपनी खुषी छुपा नहीं पा रहा था। उनकी ऑंखों का भाव तथा उनके रोम-रोम से प्रफुल्लित होते प्रेम का अनुभव ऐसा था जो मुझे पहले कभी नहीं हुआ। मैं समझ गया कि मैं मनुष्य रूप में दिव्यता का साक्षात अनुभव कर रहा हँ।

August 20, 2010

सच्ची सफ़लता

आप जीवन में आराम ढूंढ रहे हैं. तुम्हें पैसा क्यों चाहिए? क्योंकि तुम आराम करना चाहते हो. किसी भी दिशा में करी गयी इच्छा का निचोड़ है - आराम.

आराम के कई स्तर हैं. एक शारीरिक है - अगर तुम घास पर बैठे हैं, तो तुम्हें लगता है कि, ओह, बेहतर होता अगर यहाँ एक तकिया होता. फिर मानसिक आराम है - यह और भी जरूरी है. यदि तुम पूरे सुख सुविधा के साथ घर में हो, लेकिन मन में आराम नहीं हो तब एक आरामदायक बिस्तर पर भी तुम सो नहीं पाओगे.

एक और प्रकार का आराम है भावनात्मक आराम - तुम्हारे पास सब कुछ हो, पर अगर कोई तुम्हारा करीबी तुम से बात नहीं करे या कुछ ऐसा करे जिससे तुम्हें पीड़ा मिले, तो तुम्हारा भावनात्मक आराम खत्म हो जाता है.

फिर होता है आध्यात्मिक आराम - यह है आत्मा की शान्ति, पूर्ण शांति. यह है अपने भीतर से शांति और आनन्द का एक निरंतर प्रवाह. आराम यानि अपने स्वभाव में रहना.

आराम कहाँ है? यह शरीर में है या मन में? यह दोनों के संयोजन में है. कभी-कभी, जब शरीर को आराम नहीं मिलता तब मन को भी आराम नहीं मिलता और इसका विपरीत भी होता है. शरीर से अधिक, मन की शान्ति महत्वपूर्ण है. शरीर से मन तीन गुणा अधिक ताकतवर है, यानि मानसिक शान्ति शारीरिक आराम से तीन गुणा अधिक महत्वपूर्ण है.

आराम प्रतिबद्धता पर आधारित है. दूसरे लोगों की प्रतिबद्धता तुम्हें आराम देती हैं. उदाहरण के लिए,  तुम तक दूध पहुँचाने की दूधवाले की प्रतिबद्धता तुम्हें आराम देता है. इसी तरह तुम्हारी प्रतिबद्धता से और सभी लोगों को आराम मिलना चाहिए. कभी-कभी लोग कहते हैं,  ओह, मैं प्रतिबद्ध होकर फँस गया हूँ, इसलिये मैं दुखी हूँ. अब यह नहीं सोचना कि हर प्रतिबद्धता शुरू से ही आसान रहेगी. यदि आप डॉक्टरी पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो रास्ते में कुछ काँटे आना स्वाभाविक है.

हालांकि प्रतिबद्धता तुम्हें सभी बाधाओं के पार ले जा सकती हैं. जितनी अधिक उपलब्धि होगी उतनी ही अधिक प्रतिबद्धता और चाहिये होगी. तुम जितना अधिक प्रतिबद्ध होगे तुम्हारी क्षमता और योग्यता उतनी ही बढ़ेगी. प्रतिबद्धता हमेशा कुछ ऐसे के बारे में होती है जो थोड़ा अधिक हो. तुम यह नहीं कह सकते कि,  'मैं एक गिलास पानी पीने या एक किलोमीटर चलने के लिए प्रतिबद्ध हूँ ', यह तो तुम वैसे भी करते हो. प्रतिबद्धता तभी होती है जब तुम्हें जितना लगता है कि तुम कर सकते हो तुम उससे भी अधिक करो. प्रतिबद्धता यानि अपनी क्षमता के स्तर को बढ़ाना.

सफ़लता के बारे में हर जगह बहुत चर्चे होते हैं. सभी सफ़ल होना चाहते हैं. क्या तुमने कभी सोचा है कि सफ़लता क्या है? यह केवल अपनी क्षमताओं के प्रति अनजान होना है. तुमने अपने आप पर एक सीमा निर्धारित करी है, और जब भी तुम अपनी सीमा को पार करते हो तो अपने आप को सफ़ल होने का दावा करते हो. सफ़लता स्वयं की शक्ति का अज्ञान है क्योंकि तुमने मान लिया है कि तुम केवल इतना ही कर सकते हो.

तुम कभी नहीं कहते 'मैंने सफ़लतापूर्वक एक केला खा लिया!' जब तुम एक सीमा डालते हो तो अपनी  आत्मशक्ति, अपनी चेतना को सीमित कर रहे होते हो. हर बार जब तुमको कोई उपलब्धि मिलती है तब  तुम गर्व महसूस करते हो, है ना? असल में, तुम्हें खेद महसूस होना चाहिए. तुम उसी के प्रति गर्व कर रहे हो जो तुम आसानी से कर सकते हो, जबकि जिसके प्रति तुम्हें गर्व हो रहा है उससे कहीं अधिक तुम्हारी क्षमता है. जब तुम सफ़ल होते हो तो गर्व महसूस होता है और अगर तुम असफ़ल होते हो तो पछतावा होता है जिससे तुम परेशान हो जाते हो.  दोनों परिस्थितियों में तुम आनन्द से दूर हो सकते हो, या अपने सामर्थ्य से दूर हो सकते हो.

तो सबसे अच्छा है कि तुम परमात्मा को समर्पण कर दो. यदि तुम सफ़ल रहे, तो क्या हुआ? यह एक और घटना थी, बस एक और कृत्य जो तुमने किया, तुम इससे बहुत ज्यादा कर सकते हो. यदि तुम कोई चीज़  अच्छी तरह से नहीं कर पाये, तो बस नहीं कर पाये, बस इतना ही. इस पल, क्या तुम उसे फिर से करना चाहते हैं? तो संकल्प लो - 'मुझे कर के ही रहना है!' - तो तुम्हें अच्छी प्रगति मिलेगी, बिना अपराधबोध के, बिना आलोचक बने.


पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी के लेख से अनुवादित 

February 12, 2010

अभी तो बच्चा हूं जी: श्री श्री रवि शंकर





नवभारत
 टाइम्स7th February, 2010

हर चेहरे पर मुस्कान देखने की तमन्ना रखने वाले आध्यात्मिक गुरु और आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रवि शंकरविश्वशांतिसौहार्द और सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता के लिए भी जाने जाते हैं। पिछले दिनों 'मेरी दिल्लीमेरी यमुना'अभियान के तहत वह दिल्ली में थे। इस दौरान राजेश मिश्र और प्रभात गौड़ ने उनसे कई मुद्दों पर बातचीत की। पेश हैं इसबातचीत के प्रमुख अंश:

आपने यमुना की सफाई का अभियान शुरू किया हैलेकिन लोग हैं कि धर्म के नाम पर हवन सामग्रीफूल और  जानेक्या-क्यायमुना में प्रवाहित करते हैं। आप लोगों का आह्वान क्यों नहीं करते कि ऐसी चीजों को यमुना में बहाना धर्म केखिलाफ है?

जहां तक फूलपत्तेमिट्टी आदि का सवाल हैतो उसे पानी में बहाने में कोई हर्ज नहीं है। ये चीजें बायोडिग्रेडेबल होती हैंजिनका कोई नुकसान नहीं होता। असली दिक्कत तब आती है जब हम केमिकल और पेंट से बनी हुई चीजें यमुना या गंगा मेंबहाते हैं। ऐसी चीजों को रोकने के लिए लोगों में जागरूकता लाई जानी चाहिए।

शिवसेना और राज ठाकरे आजकल जिस तरह की विभाजन की राजनीति कर रहे हैंउससे देश को मुक्ति कैसे मिलेआपकोनहीं लगता कि इन्हें भी आर्ट ऑफ लिविंग की जरूरत है?

देखिएजनता में इसके प्रति सजगता जरूरी है। जनता अगर यह जान ले कि खंडित और सीमित सोच वाले ऐसे राजनेता सिर्फअपना उल्लू सीधा करने के लिए उन्हें बरगला रहे हैंतो ये अपने आप खत्म हो जाएंगे। जहां तक आर्ट ऑफ लिविंग की बात हैतो उससे तो सभी को फायदा होता है। जाहिर हैसभी लोगों में ऐसे राजनेता भी शामिल हैं।

अगर कोई शख्स लगातार हमारे साथ बुरा किए जा रहा है तो उसके साथ कैसे पेश आना चाहिए?

यह आपके भाव पर निर्भर करता है कि आप उसके साथ किस तरह पेश आएंगे। कोई भी इंसान बुरा नहीं होता। उसे कोई कोई तकलीफ होती है। हो सकता हैअपनी परेशानियों की वजह से वह बुरा बन गया हो। अगर आप उसे दंड भी देना चाहते हैंतो उसके पीछे मकसद सुधार का होना चाहिए। सुधारक के दृष्टिकोण से कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं होता। सीमित ज्ञान याअज्ञान की वजह से कोई व्यक्ति बुरा बन जाता है। उसे एजुकेट और प्रशिक्षित करना ही सही रास्ता है।

भारत पर भूतकाल में कई हमले हुए हैं। वर्तमान में भी हम निशाने पर हैं। ऐसे में हमें क्या करना चाहिए?

हमलावरों को ऐसे ही छोड़ देना ठीक नहीं है। ऐसी परिस्थिति आने पर हमें कठोर कार्रवाई करनी चाहिएलेकिन दूसरों के साथसख्ती के बावजूद हमारा भाव सुधार का ही होना चाहिए।

आप कहते हैं - एक्सेप्ट द सिचुएशन एज इट इज। क्या गलत को भी स्वीकार कर लें?

पहले स्वीकार करो कि यह गलत है। यह मत पूछो कि क्यों गलत है। हमारी सारी परेशानियां की वजह यह है कि हम सोचते हैंकि ये क्यों गलत हैकिसी ने ऐसा क्यों कहाभूतकाल को हम क्वेश्चन करते रहते हैं। इससे हम और भी ज्यादा परेशान होजाते हैं। स्वीकार मतलबभूतकाल को स्वीकार करना कि ऐसा है। चोर क्यों हैये पूछने से कोई फायदा नहीं है। चोर है येस्वीकार कियाफिर उसके लिए जो सजा तय हैउसे मिलनी चाहिए।

अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए?

मैं तो अभी बच्चा ही हूं। मेरा बचपन कभी खत्म ही नहीं हुआ है।  आगे होने की संभावना है। मैं जैसा पहले थाआज भी वैसाही हूं।

आपने शादी नहीं की?

(हंसकरमैंने कहा मैं अभी बच्चा हूं और अपने देश में बाल-विवाह गैरकानूनी है।

ज्ञान प्राप्ति के बाद आपमें क्या बदलाव आए?

मैं पहले से ऐसा ही हूं। मुझमें कुछ बदलाव नहीं आए। बस भीतर एक तड़प थी जो खत्म हो गई।

10 दिन की मौन साधना में क्या हुआ?

जो मैं थावह औरों को दिखाना चाहता थाबताना चाहता था। दूसरों को उसकी अनुभूति करानी थी। एक प्रेम का अनुभव दूसरेलोगों में पैदा करना चाहता था। दस दिन के मौन के बाद अपने आप ही वह मार्ग मिल गया।

लेकिन कुछ तो चेंज आए होंगे?

हां कुछ तो था जिसे बाहर निकालना थालोगों के बीच बांटना था। लेकिन उससे पहले भी हम योगप्राणायाम और ध्यान लोगोंको सिखाते थे। उस वक्त लगता था कि कुछ और भी भीतर है जो लोगों के बीच पहुंचाना है। दस दिनों की साधना के दौरान यहअनुभूति होने लगी कि 'सुदर्शन क्रियाके इस विशिष्ट ज्ञान को औरों तक पहुंचाना है।

सेक्स के बारे में सही नजरिया क्या होना चाहिएब्रह्माचर्य या फिर जितनी मर्जी उतना करो?

यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। अगर कोई सेक्स की अति पर पहुंच जाएतो ऐसे लोगों के लिए तंत्र में कई तरह की साधनाओंका जिक्र है। सेक्स से परे जाने के लिए भारत के कुछ मंदिरों में नग्न प्रतिमाओं के सामने बैठकर ध्यान करने की भी पद्धतिरही है। साधक वहां बैठकर ध्यान करते थे और सेक्स से ऊपर उठ जाते थे। लेकिन ये सबके लिए नहीं है। सबको इसकी जरूरतभी नहीं है। ध्यान और प्राणायाम करने से भी शरीर और मन की तरंगें बदलती हैं। और व्यक्ति आत्मिक रूप से मजबूत होजाता है।

क्या आप ब्रह्माचर्य के पक्ष में हैं?

ब्रह्माचर्य सहज ही सिद्ध हो तो ठीक हैलेकिन भावनाओं का दमन नहीं करना चाहिए। प्राणायामध्यान और योग के मार्ग मेंजो उतरते हैं उनका ब्रह्माचर्य सहज ही फलित होने लगता है।

आप हर चेहरे पर मुस्कान देखना चाहते हैं। यह कैसे संभव है?

देखिएजो हमारे समाने आता हैवह तो मुस्कुराता ही है। और में उसी चेहरे को देखता हूंजो मेरे सामने आता है।

आप दुनिया को क्या देना चाहते हैं?

मेरे पास सबके लिए बस प्रेम ही प्रेम है। मैं प्यार ही दे सकता हूंप्यार के सिवा कुछ भी नहीं।

लेकिन एक आम आदमी के लिए आपसे मिलना और आप तक पहुंचना बेहद कठिन है।

नहींऐसा तो नहीं है। मैं तो रोजाना हजारों लोगों से मिलता हूंउनसे बात करता हूं। हांकई बार व्यस्त कार्यक्रम के चलतेवक्त निकालना मुश्किल हो जाता है।

हमारे रीडर्स के लिए आपका कोई संदेश?

जीवन एक उत्सव है। इसे मस्त होकर जीना चाहिए। रूखा सूखा जीना भी क्या जीनाअगर हम ये समझ सकें तो सारे तनावों सेमुक्त हो जाएंगे। इसलिए कहता हूं हंसो और हंसाओमत फंसो और फंसाओ।