August 30, 2010

क्रिस कपीला

क्रिस कपीला, सीऐटिल, अमरीका के एक सॉफ्टवेयर कन्सल्टेन्ट हैं।

वह विशेष कलीनेक्स -
       1993 की गर्मियों में, लेक जेनिवा (विस्कॉन्सिन) में आयोजित, गुरुदेव, के सान्न्ध्यि में हुए सप्ताह भर के कोर्स को करने के बाद हम लोग वैनकूवर (कनाडा) पहुँचे। कहने की जरूरत नहीं, पर फिर भी, वह कोर्स जीवन बदलने वाला था, अगर कहें कि कोर्स करके पुनर्जन्म हो गया तो गलत नहीं होगा।

       उस कोर्स में गुरुजी के आस-पास हर क्षण इतनी भीड़ होती थी कि मैं उनसे कुछ बोल ही नहीं पाता था। मुझे उनके साथ कुछ क्षण अकेले में बात करने की तीव्र इच्छा थी। परंतु शायद उस कोर्स में हर कोई यही चाहता था, और मुझे अपनी इच्छा की पूर्ति असंभव लगने लगी।

       वैनकूवर में, गुरुजी एक हिन्दू मंदिर में रविवार की प्रात: कालीन पूजा में प्रवचन देने गये। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद और लोग तो दोपहर का भोजन करने चले गये, पर मैं उनकी फ़ोटो खींचने की मंषा से वहीं खड़ा रहा।

       लगभग दस मिनट के बाद गुरुजी के साथ थोड़े से ही लोग थे, जो उनसे बात कर रहे थे। बाद में वे लोग भी चले गये और मैं अकेला, उनके साथ, उनके कमरे में रह गया।

       मैं संकुचाया सा वहाँ खड़ा था। गुरुजी उस हॉलनुमा कमरे में टहलते हुए कुछ वार्तालाप कर रहे थे। मेरे पास पहुँचते ही उन्होंने मुझसे पूछा कि मुझे कोर्स कैसा लगा। मैंने उनसे कहा कि मुझे कोर्स बहुत अच्छा लगा और उन्होंने मेरे और मेरे प्रियजनों के लिये अब तक जो कुछ भी किया, उसके लिये मैं बहुत कृतज्ञ हँ। यह कहते-कहते मैं फूट-फूट कर रो पड़ा। उन्होंने मुझे उनके पीछे-पीछे मंच तक आने का संकेत किया और वहाँ मुझे एक टिषू पेपर (क्लीनेक्स) दिया, जिसकी उस समय (कहने की जरूरत नहीं) मुझे बहुत ज़रूरत थी। यह मेरा पहला अनुभव था कि गुरुदेव कैसे हम में से प्रत्येक की छोटी से छोटी आवष्यकताओं के प्रति अपना ध्यान रखते हैं।

       उस पहली रूबरू मुलाक़ात के बाद मेरा जीवन बहुत बदल गया है। अब जीवन में केवल आनंद ही आनंद हैं, प्रेम ही प्रेम है।

1100 किसानों को मिला जैविक खेती का प्रशिक्षण

बैंगलोर, अगस्त 25, 2010:
पूरे भारत में जैविक कृषि के विस्तार के लिए प्रशिक्षित किसानो का एक जत्था तैयार करने के लिए आर्ट आफ लिविंग ने एक पांच दिवसीय टीचर्स ट्रेनिंग कार्यक्रम का आयोजन किया। पांच दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम आर्ट ऑफ लिविंग के अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बैंगलोर में 21 अगस्त शनिवार को से आरंभ हो कर बुधवार 25 अगस्त 2010 को समाप्त हुआ जिसमें 15 राज्यों से 1100 किसानों ने जिनमें 100 महिलायें भी शामिल है, ने भाग लिया।

यह प्रशिक्षण कार्यक्रम संभागियों को इस बात के लिए सक्षम बनायेगा कि वे जैविक कृषि के
तंत्र को आगे दूसरे किसानों समझा सके। इस प्रभावी लागत तकनीक के अतिरिक्त किसानों
को अन्य कई किसानों के लिए उपयोगी तकनीकें जैसे उद्यान संबंधी, देशी गायों का कृषि में
उपयोग, जल संरक्षण और जल संसाधनों के बारे में भी प्रशिक्षण दिया गया है। किसानों अन्य
कृषि संबंधी विकास कार्यक्रमों की जानकारी दी गई है।

श्री सुभाष पालेकर, शून्य बजट कृषि के संस्थापक ने अपनी जानकारियां किसानों के साथ
बांटी साथ ही किसानों को कम से कम लागत से अधिक से अधिक पैदावार कैसे प्राप्त की जा
सकती है, बताया। साथ ही किसानों को रसायनिक खेती से होने वाली बिमारियां जैसे कैंसर
आदि के बारें में शिक्षित किया।

'' रसायनिक खेती हमारे इको सिस्टम के लिए खतरनाक है। प्राकृतिक तकनीक को अपनाकर
किसान एक ही वर्ष में इसके अच्छे परिणाम प्राप्त कर सकतें हैं। उपज उच्च गुणवत्ता की
होगी और ज्यादा गुणकारी एवं स्वादिष्ट होगी। किसानों को जो आज मूल्य मिल रहा है उसे
दुगुना मूल्य मिलेगा। साथ ही प्राकृतिक खेती जलवायु परिवर्तन और ग्लॉबल वार्मिंग को भी
संतुलित करती है और प्राकृतिक संसाधनों को भी बचाती है।'' श्री पालेकर ने कहा।

गणेशम् चौपडे, वर्धा महाराष्ट के एक किसान ने कुछ वर्ष पूर्व ही प्राकृतिक खेती को अपनाया
है और अपने जीवन स्तर में अनेक प्रकार से सुधार किया। '' मैं रसायनिक खेती के कारण 12
लाख के कर्ज से दबा हुआ था और इससे मेरा स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा था। जब से मैंने
प्राकृतिक खेती को अपनाया है मैंने सारे कर्ज उतार दिये और मेरे परिवार को पहले से अच्छा
खाना, कपड़े और मकान बनाकर दिया है।''

किसानों ने कम से कम एक एकड़ भूमि पर प्राकृतिक खेती करके इसे अपने गांव के अन्य
100 किसानों को दिखाकर अपनाने हेतु अपील की शपथ ली।

ऐसे समय में जब ग्लॉबल वॉर्मिंग के खतरे से जलवायु को खतरा हो रहा है, आर्ट आफ
लिविंग ने अन्य प्रकार के भी कार्यक्रमों के साथ साथ इस कार्यक्रम का भी शुभारंभ कर
जलवायु के संरक्षण के लिए सार्थक कदम बढाया है। ये प्राकृतिक और रसायनमुक्त खेती के
साथ साथ, वर्षा जल संरक्षण पर कार्य कर रही है। अब तब भारत के 6000 किसानों को
रसायन मुक्त खेती का प्रशिक्षण दिया जा चुका है।

August 25, 2010

और भजन फूट पड़ा - इरावती कुलकर्णी

इरावती, पुणे की एक प्रतिभाशाली गायिका हैं। इन्होने संस्कृत साहित्य में स्नातक किया है।

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं भजन कैसे बनाती हँ। मुझे संगीत की रचना करने का कोई अनुभव नहीं हैं और न ही मुझे इस क्षेत्र की कोई विशेष जानकारी है। और मैं उनके भजनों का माध्यम होने पर अपने आपको धन्य मानती हँ। पहला भजन जो मेरे माध्यम से निकला वह था 'परमेश्वरी जय दुर्गा' जो नवरात्रि के दौरान की गई एक विरह पूर्ण प्रार्थना के बीच उदय हुआ। मैंने बंगलोर आश्रम में नवरात्रि में होने वाली पूजाओं के विषय में बहुत कुछ सुन रखा था और मैं वहाँ जाना चाहती थी, पर जा नहीं पा रही थी। हाँलाकि मैं मुम्बई में थी पर मेरा मन आश्रम में था और ऐसी ही एक रात में नींद में मैंने यह भजन सुना। मैं मध्यरात्रि में ही उठ कर इस भजन को ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी। शब्द और सुर दोनों मेरे नहीं थे। यह केवल दैवी कृपा थी जो मुझ पर हुई और इस प्रकार पहले भजन का जन्म हुआ।

इस वर्ष के शिवरात्रि उत्सव में, मैंने मन ही मन सत्संग के बीच में गुरुजी से प्रार्थना की कि वे मुझे एक भजन दें जिसे मैं उन्हें सुना सकूँ। कुछ मिनटों के अन्दर ही, एक शिव भजन का जन्म हुआ, और जैसे ही उस सत्संग में मैंने उसे गाना शुरू किया, गुरुदेव भी मेरे साथ गाने लगे। सभी आश्चर्य में उनकी ओर देख रहे थे कि इस भजन को तो पहली बार गाया जा रहा है फिर गुरुदेव कैसे इसके बोल जानते हैं ?

मेरे लिये तो गुरुजी माता, पिता मित्र, गुरु, यह सब कुछ तथा और बहुत कुछ हैं। उन्होनें मुझे अपूर्व साहस दिया है, मैं अपनी सीमितताओं से छूट गयी हँ। और उनकी कृपा, तथा असीमित प्रेम, दया व धैर्य से यह पूरी प्रक्रिया अत्याधिक सरल हो गयी है।

छः महीने बाकी - श्याम सदाना

श्याम सदाना हरियाणा भारत के एक उद्योगपति हैं। इनकी कई सफ़ल कंपनियाँ है। साथ-साथ उन्होंने अपने गृह राज्य में कई सेवा कार्यक्रम आरंभ किये है। 

जबसे मैंने जीवन के चौथे दषक में कदम रखा, तब से मैं हदय रोगी रहा। मुझे ऐंजाइना के साथ, उच्च रक्त चाप व हाइपरटेन्षन भी था जिसके कारण मुझे बहुत सावधानी व परहेज़ करना पड़ता था। अड़तालीस वर्ष की आयु में मुझे दिल का दौरा पड़ा और तब से ही मुझे काफ़ी दवाईयाँ लेनी पड़ती थी। छप्पन वर्ष की आयु में पहली बार मेरे हदय का ऑपरेषन हुआ जब मेरी धमनियाें में रूकावट (ब्लॉकेज) पायी गयी। फरवरी 1998 में जब मुझे साँस लेने में अत्याधिक कष्ट होने लगा, तब मैंने विस्तृत जाँच करवायी। परीक्षणों से पता चला कि मैं मृत्यु की दहलीज़ पर खड़ा हुआ था। सभी डॉक्टरो ने मुझे जीने के लिये केवल 6 महीने दिये थे। मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने, यहाँ तक कि कमरे से बाहर जाने से भी मना किया गया था। कुछ कदम चलते ही मैं हाँफ़ने लगता था।

अपनी इस अवस्था में मैंने मई 1999 में संडे नामक पत्रिका में बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स के बारे में पढ़ा। मैंने आर्ट ऑफ लिंविंग के बेसिक कोर्स के षिक्षक नित्यानन्द से संपर्क किया। मैंने उन्हें अपनी परेषानी से अवगत कराया और उसके अगले सप्ताह ही बेसिक कोर्स किया। कोर्स के बाद, मेरी हालत में ज़बरदस्त सुधार हुआ। मैं चल-फिर सकता था और मेरे स्वास्थ्य में भी काफ़ी सुधार हुआ।

मैं ऋषिकेष में एडवांस्ड कोर्स करना चाहता था, इसलिये जुलाई में मैं अपने डॉक्टर के पास अपनी जाँच कराने गया, ताकि जान सकूँ कि मैं सफ़र करने लायक हँ कि नहीं। मेरी जाँच करके मेरे डॉक्टर अचंभे में पड़ गये। उन्होंने मुझसे पूछा ''क्या यह वहीं दिल है जिसकी मैंने पिछले महीने जाँच की थी?'' मैं बोला ''हाँ, पर कुछ बदल गया है। मैं आपकी दवाईयाँ लेने के साथ साथ सुदर्र्षन क्रिया भी कर रहा हँ।'' यह सुनकर डॉक्टर साहब हँसने लगे।

एडवांस्ड कोर्स करने व गुरुदेव से मिलने से पहले ही मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया था। इस समय मुझे कोई भी तकलीफ़ नहीं है। मैं जर्मनी जाकर बर्फ से ढकी पहाड़ी ढलानाें पर चल आया हँ। मैं, जिसे जीने के लिये मात्र छह महीने दिये गये थे, वह भी एक पेड़ के सूखे तने की तरह, अब पिछले तीन साल से एक सामान्य जीवन जी रहा हैं। यह सब केवल गुरु कृपा है, कुछ और नहीं।

कार्यक्रम परिवर्तन - मधु राव

श्री मधु राव, हांगकांग के निवासी हैं। वे शांगरीला होटेल्स एण्ड रिज़ौर्टस, हांगकांग के मुख्य वित्तीय अधिकारी हैं 

अगस्त 2000 में मेरी पत्नी संध्या टीचर्स द्रेनिंग कोर्स के लिये बंगलोर गई थी। कुछ दिन बाद, उनके पिता, जिन्हें पहले भी लकवे के दौरे पड़ चुके थे, को एक और दौरा पड़ा। वे पूरी तरह से बिस्तर पर पड़ गये थे, हाथ पैर ठीक से चला नहीं पा रहे थे, लोगों को पहचान नहीं पा रहे थे और किसी की बातचीत भी नहीं समझ पा रहे थे। उनके लकवे के इतिहास को देखकर, डॉक्टर असमजंस में थे कि वे जीवित बचेंगे अथवा नही। मैं मानसिक द्वंद की स्थिति में था। अगर मैं संध्या को बताता, वो वह कोर्स छोड़ कर अपने पिता के पास चली आती, और अगर मैं न बताता, तो मैं अपनी दृष्टि में दोषी बन जाता।

अंत में मैंने आश्रम फ़ोन कर गुरुजी के लिये एक संदेष छोड़ा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे उत्तर मिला कि 'वह चाहे तो अपने पिता के पास जाये और फिर लौट कर आ जाये।' तब हमने संध्या को यह समाचार बताने का निर्णय किया। समाचार तथा गुरुजी का परामर्ष सुनने के बाद गुरुजी में अपनी अटूट आस्था के चलते संध्या को विष्वास हो गया की उनके पिता के साथ सब ठीक होगा। उन्होंने अपने पिता को फ़ोन किया, और आष्चर्य, वे उनकी आवाज़ पहचान गये। गुरुजी पर अपने पिता का दायित्व सौंप कर उन्होंने अपने प्रषिक्षण पर पूरा ध्यान लगाया। उनके पिता, जो पूरी तरह बिस्तर पर पड़े हुए थे, और शौचालय भी जाने में असमर्थ थे, अगले दो तीन दिन में आष्चर्यजनक प्रगति करने लगे और हफ्ते भर में ठीक हो गये। इस एक हफ्ते में ही उनमें इतनी शक्ति आ गई कि वे सपरिवार गुरुजी को अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने व आषीर्वाद लेने आश्रम पहुँच गये, और व्यक्तिगत रूप से गुरुजी से मिले। मैंने हौंगकौंग में, नवम्बर 1998 में बेसिक कोर्स किया था। विष्व भर में कई व्यक्तियों की तरह, मुझे भी कोर्स में एक ऐसा सुंदर अनुभव हुआ जो शब्दो में व्यक्त नहीं किया जा सकता। कुछ महीनों बाद, 1999 के आरंभ में, मुझे एक सपना आया जिसमें मैं गुरुजी से मिला और उन्होंने मुझे प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया। अप्रैल 1999 के आरंभ में, मैंने सुना कि गुरुजी सिंगापुर में कुछ समय के लिये पधारेंगे। मैं अपनी पुत्री व एक संबंधी के साथ, उनके दर्षन के लिये, सिंगापुर पहुँचा। वे भक्तों से घिरे हुए थे और मैं कुछ ही समय के लिये उनसे मिल पाया। पर उस पहली मुलाक़ात नें मुझमें उनसे और मिलने की इच्छा जगा दी।

उसी साल मई में, हमारी कम्पनी ने निवेषकाें से मिलने के लिये यूरोप व अमरीका में रोड षो करने की योजना बनाई। यह रोड षो, अगले महीने यानी जून से शूरू होने वाले थे। उसी समय, संयोगवष, मैंने अपने एक मित्र से सुना कि गुरुजी अमरीका में लेक टाहो जाने वाले थे। हमारा अधिकारिक पूर्व नियोजित कार्यक्रम, न्यूयॉर्क व बोस्टन में था, और हौँग कौग लौटते हुए बीच में कुछ समय के लौस ऐंजिलिस भी रुकना था। चूँकि लेक टाहो का इलाका लौस ऐंजिलिस से बहुत दूर था, मैं निराष हो गया। मुझे लगा कि अगर वहाँ कि बजाय सैन फ्रांसिस्को में मीटिंग होती तो अच्छा रहता क्योंकि वहाँ से लेक टाहो थोड़ी ही दूर है। मैंने अपनी यह इच्छा गुरुजी को समर्पित कर दी।

उसी दिन के बाद, अचानक, हमारे निवेष सलाहकारों ने कहा कि वे लॉस ऐंजिलिस के बजाय सैन फ्रांसिस्को मीटिंग करना ज्यादा पंसद करेगे। बस, मुझे मौका मिल गया।

मुझे गाड़ी चलाना नहीं आता था। मैं सोचने लगा कि लेक टाहो तक जाने के लिये किराये पर वाहन ले लूँ। तभी मुझे याद आया कि हमारे सी.ई.ओ. नें भी बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स किया था, क्यों न उनसे पूछ लूँ कि क्या वे गुरुजी से मिलना चाहेंगे ? वे सहर्ष मान गये और मेरे बिना पूछे ही उन्होंनें मुझे अपनी गाड़ी में साथ चलने को कहा।

जब हम लेक टाहो पहुँचे, हमारा स्वागत ताईपेई की कुमारी ऐलिस जेन ने किया। उन्होंने बताया कि गुरुजी हमारे आने की उम्मीद कर रहे थे। कुछ और भक्तों के साथ हम उनके कुटीर पहुँचे। मुझे बिलकुल गुरुजी के बगल में बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। फिर मैं आष्चर्यचकित रह गया जब गुरुजी ने मेरी मातृभाषा तेलगू में मुझसे बात की। मुझे उनसे बात करने में बहुत सहूलियत हुई। फिर उन्होंने हम सबको एक छोटा सा ध्यान कराया। जब हम लोग उठकर जाने बाले थे, तब गुरुजी ने बड़े प्रेम के साथ मुझे गले से लगा लिया, ठीक वैसे ही जैसा कि मैंने कुछ महीने पहले सपने में देखा था। मैं अपनी खुषी छुपा नहीं पा रहा था। उनकी ऑंखों का भाव तथा उनके रोम-रोम से प्रफुल्लित होते प्रेम का अनुभव ऐसा था जो मुझे पहले कभी नहीं हुआ। मैं समझ गया कि मैं मनुष्य रूप में दिव्यता का साक्षात अनुभव कर रहा हँ।

August 20, 2010

सच्ची सफ़लता

आप जीवन में आराम ढूंढ रहे हैं. तुम्हें पैसा क्यों चाहिए? क्योंकि तुम आराम करना चाहते हो. किसी भी दिशा में करी गयी इच्छा का निचोड़ है - आराम.

आराम के कई स्तर हैं. एक शारीरिक है - अगर तुम घास पर बैठे हैं, तो तुम्हें लगता है कि, ओह, बेहतर होता अगर यहाँ एक तकिया होता. फिर मानसिक आराम है - यह और भी जरूरी है. यदि तुम पूरे सुख सुविधा के साथ घर में हो, लेकिन मन में आराम नहीं हो तब एक आरामदायक बिस्तर पर भी तुम सो नहीं पाओगे.

एक और प्रकार का आराम है भावनात्मक आराम - तुम्हारे पास सब कुछ हो, पर अगर कोई तुम्हारा करीबी तुम से बात नहीं करे या कुछ ऐसा करे जिससे तुम्हें पीड़ा मिले, तो तुम्हारा भावनात्मक आराम खत्म हो जाता है.

फिर होता है आध्यात्मिक आराम - यह है आत्मा की शान्ति, पूर्ण शांति. यह है अपने भीतर से शांति और आनन्द का एक निरंतर प्रवाह. आराम यानि अपने स्वभाव में रहना.

आराम कहाँ है? यह शरीर में है या मन में? यह दोनों के संयोजन में है. कभी-कभी, जब शरीर को आराम नहीं मिलता तब मन को भी आराम नहीं मिलता और इसका विपरीत भी होता है. शरीर से अधिक, मन की शान्ति महत्वपूर्ण है. शरीर से मन तीन गुणा अधिक ताकतवर है, यानि मानसिक शान्ति शारीरिक आराम से तीन गुणा अधिक महत्वपूर्ण है.

आराम प्रतिबद्धता पर आधारित है. दूसरे लोगों की प्रतिबद्धता तुम्हें आराम देती हैं. उदाहरण के लिए,  तुम तक दूध पहुँचाने की दूधवाले की प्रतिबद्धता तुम्हें आराम देता है. इसी तरह तुम्हारी प्रतिबद्धता से और सभी लोगों को आराम मिलना चाहिए. कभी-कभी लोग कहते हैं,  ओह, मैं प्रतिबद्ध होकर फँस गया हूँ, इसलिये मैं दुखी हूँ. अब यह नहीं सोचना कि हर प्रतिबद्धता शुरू से ही आसान रहेगी. यदि आप डॉक्टरी पाठ्यक्रम पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं, तो रास्ते में कुछ काँटे आना स्वाभाविक है.

हालांकि प्रतिबद्धता तुम्हें सभी बाधाओं के पार ले जा सकती हैं. जितनी अधिक उपलब्धि होगी उतनी ही अधिक प्रतिबद्धता और चाहिये होगी. तुम जितना अधिक प्रतिबद्ध होगे तुम्हारी क्षमता और योग्यता उतनी ही बढ़ेगी. प्रतिबद्धता हमेशा कुछ ऐसे के बारे में होती है जो थोड़ा अधिक हो. तुम यह नहीं कह सकते कि,  'मैं एक गिलास पानी पीने या एक किलोमीटर चलने के लिए प्रतिबद्ध हूँ ', यह तो तुम वैसे भी करते हो. प्रतिबद्धता तभी होती है जब तुम्हें जितना लगता है कि तुम कर सकते हो तुम उससे भी अधिक करो. प्रतिबद्धता यानि अपनी क्षमता के स्तर को बढ़ाना.

सफ़लता के बारे में हर जगह बहुत चर्चे होते हैं. सभी सफ़ल होना चाहते हैं. क्या तुमने कभी सोचा है कि सफ़लता क्या है? यह केवल अपनी क्षमताओं के प्रति अनजान होना है. तुमने अपने आप पर एक सीमा निर्धारित करी है, और जब भी तुम अपनी सीमा को पार करते हो तो अपने आप को सफ़ल होने का दावा करते हो. सफ़लता स्वयं की शक्ति का अज्ञान है क्योंकि तुमने मान लिया है कि तुम केवल इतना ही कर सकते हो.

तुम कभी नहीं कहते 'मैंने सफ़लतापूर्वक एक केला खा लिया!' जब तुम एक सीमा डालते हो तो अपनी  आत्मशक्ति, अपनी चेतना को सीमित कर रहे होते हो. हर बार जब तुमको कोई उपलब्धि मिलती है तब  तुम गर्व महसूस करते हो, है ना? असल में, तुम्हें खेद महसूस होना चाहिए. तुम उसी के प्रति गर्व कर रहे हो जो तुम आसानी से कर सकते हो, जबकि जिसके प्रति तुम्हें गर्व हो रहा है उससे कहीं अधिक तुम्हारी क्षमता है. जब तुम सफ़ल होते हो तो गर्व महसूस होता है और अगर तुम असफ़ल होते हो तो पछतावा होता है जिससे तुम परेशान हो जाते हो.  दोनों परिस्थितियों में तुम आनन्द से दूर हो सकते हो, या अपने सामर्थ्य से दूर हो सकते हो.

तो सबसे अच्छा है कि तुम परमात्मा को समर्पण कर दो. यदि तुम सफ़ल रहे, तो क्या हुआ? यह एक और घटना थी, बस एक और कृत्य जो तुमने किया, तुम इससे बहुत ज्यादा कर सकते हो. यदि तुम कोई चीज़  अच्छी तरह से नहीं कर पाये, तो बस नहीं कर पाये, बस इतना ही. इस पल, क्या तुम उसे फिर से करना चाहते हैं? तो संकल्प लो - 'मुझे कर के ही रहना है!' - तो तुम्हें अच्छी प्रगति मिलेगी, बिना अपराधबोध के, बिना आलोचक बने.


पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी के लेख से अनुवादित