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September 16, 2010
September 2, 2010
कृष्ण का प्रेम अद्वितीय है
परम पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी
कृष्ण का ज्ञान, माधुर्य और प्रेम अद्वितीय था। किसी भी दृष्टिकोण से उनका व्यक्तित्व पूर्ण था और अनूठा था। यह बताता है कि यह सब गुण आपके अंतर तम में हैं ठीक उसी प्रकार से जैसे सूर्य की किरण में सभी रंग हैं।
पांडवों की माँ महारानी कुंती ने एक बार कृष्ण से कहा, "काश मेरे पास और अधिक परेशानियाँ होतीं। जब भी मैं किसी मुसीबत में थी, तुम हमेशा मेरे साथ थे। तुम्हारे साथ से मिलने वाला आनंद किसी और सुख सुविधा या आराम के आनंद से कहीं अधिक है। मैं कोई भी दुःख सह सकती हूँ। मैं तुम्हारी उपस्थिति के एक पल के बदले में इस दुनिया के सभी सुखों को छोड़ सकती हूँ।"
कृष्ण ने उनको आत्मज्ञान अधिक दिया - "मैं तुम्हारे अन्दर तुम्हारे स्वयं के रूप में ही हूँ। इस दुनिया में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ मैं नहीं हूँ। लोग मुझे एक भौतिक शरीर के रूप में देखते हैं पर वे मेरे सच्चे स्वरुप को नहीं जानते। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार - यह शरीर इन आठ तत्वों से बना है। मैं नौवा हूँ और इन सब से परे हूँ। मैं सर्वव्यापी हूँ। मूर्ख लोग यह नहीं जानते। उन्हें लगता है कि मैं एक मानव हूँ। हालांकि मैं शरीर में हूँ, परन्तु मैं शरीर नहीं हूँ। हालांकि मैं मन के माध्यम से काम कर रहा हूँ, परन्तु मैं मन नहीं हूँ। जैसा मैं तुम्हें दिखता हूँ वह मैं नहीं हूँ, अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जितना तुम मुझे जान पायी हो उससे मैं कहीं अधिक हूँ। मैं तुम्हारे दिल में तुम्हारे स्वयं के ही रूप में उपस्थित हूँ और जब कभी भी तुम्हें मेरी आवश्यकता होगी, मैं वहाँ रहूँगा। मैं तुरंत तुम्हारे पास आ जाऊँगा, तुमको सभी परेशानियों से बाहर निकालूँगा, तुम हमेशा मुझ पर भरोसा कर सकती हो।"
यहां तक कि संतजन भी कृष्ण के प्रेम में डूब गए। वैरागी जन भी उनकी ओर खिंचे चले जाते थे। कृष्ण शब्द का अर्थ है कि जो आकर्षक है, जो कि सब कुछ अपनी और खींचता है। हमारे अस्तित्व का अंतरतम स्तर ऐसा ही है - आत्मा का सुख और परमानंद कुछ ऐसा ही है। वह सब कुछ अपनी और आकर्षित करता है। कृष्ण के जन्म का प्रतीकवाद भी बहुत सुंदर है। देवकी - शरीर, वसुदेव - प्राण यानि सांस एक होकर कृष्ण - यानि भीतर के आनंद और खुशी को प्रकट करते हैं।
कृष्ण हमेशा नीले रंग में दर्शाये जाते हैं। इसका अर्थ है कि शरीर इतना पारदर्शी है, कि उसका अस्तित्व लगभग न के बराबर है। जो अनंत है उसे नीले से दर्शाया जाता है; आकाश नीला है, और समुद्र नीला है। खुद कृष्ण गीता में कहते हैं - "लोग मेरे सच्चे स्वभाव को नहीं जानते। कोई भी नहीं जानता।” उनके पूरे जीवन काल में केवल तीन लोग ही उनके सच्चे विराट स्वरुप को जान पाये। पहली यशोदा थीं, दूसरे अर्जुन और तीसरे व्यक्ति उनके बचपन के दोस्त उद्धव थे। वे गीता में कहते हैं, "लोग मुझे भौतिक रूप - एक शरीर के रूप में समझते हैं। मैं शरीर नहीं हूँ, मैं चेतना हूँ जो सर्वव्यापी है और सब में मौजूद है।” वे आगे कहते हैं, "मैं चीनी में मिठास हूँ, मैं चाँद में चाँदनी हूँ, मैं धूप में गर्मी हूँ।" उन्होंनें अपने आप को “सर्वव्यापी” कहा ।
कृष्ण हमेशा एक पैर को जमीन पर मज़बूती के साथ जमा कर खड़े होते हैं, और उनका दूसरा पैर तिरछा रहता है जो कि ऐसा प्रतीत होता है कि वह ज़मीन छू रहा है लेकिन वास्तव में वह नहीं छू रहा होता है। वह कहीं और है। इसे ‘त्रिभंगी’ मुद्रा कहा गया है। इसका तात्पर्य है जीवन में सम्पूर्ण संतुलन होना।
कृष्णा को माखन चोर कहा गया है। मक्खन दूध का अंतिम उत्पाद है। दूध में जामन डालने से दही जम जाती है और दही को अच्छी तरह से मथ कर मक्खन निकलता है। जीवन भी मंथन की एक प्रक्रिया है। आपके मन में भी बहुत सी बातों द्वारा मंथन हो रहा है - घटनाओं, परिस्थितियों और वाकयों से।
अंत में मक्खन निकलता है जो कि आपका सतचित स्वरुप है। और कृष्ण नवनीत चोर हैं – चितचोर हैं। इसका क्या अर्थ है? वह प्रेम करते हैं सच्चिदानंद स्वरुप से, वह उस चित से प्रेम करते हैं जो मक्खन जितना नरम हो, जो सख्त न हो। जब तुम्हारा मन ऐसा बन जाता है तब वे तुमको पसंद करने लगते हैं। इसका अर्थ है कि तब अनन्तता तुम्हारी ओर बढ़ने लगती है, वह तुमसे इतना प्यार करती है कि तुम्हारे चित को तुमसे किसी भी कीमत पर चुरा लेती है। वह तुम्हें ढूँढ रहे हैं। तुम जहाँ कहीं भी हो, भगवान आते हैं और तुम्हें ढूंढ लेते हैं।
कृष्ण सभी संभावनाओं के प्रतीक है, मानव के सभी कलाओं और दिव्यता के पूर्ण विकसित स्वरुप के प्रतीक हैं। वास्तव में कृष्ण के व्यक्तित्व को समझना बहुत मुश्किल है। ऋषियों ने उन्हें पूर्ण पुरुष और सभी कलाओं से सम्पन्न दिव्यता का एक सम्पूर्ण अवतार बताया है क्योंकि जो कुछ भी किसी मानव में हो सकता है वह सब कृष्ण में मौजूद है।
जन्माष्टमी वह दिन है जब आप अपनी स्वयं की चेतना में एक बार फिर कृष्ण के विराट स्वरूप को सजीव कर लेते हैं। अपने सत्य स्वरुप को अपने दैनिक जीवन में प्रकट करना ही कृष्ण जन्म का सच्चा रहस्य है।
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