August 25, 2009

गणेश चतुर्थी पूज्य श्री श्री रवि शंकर जी द्वारा



गणेश जी का प्रतीकवाद

परम पूज्य श्री श्री रविशंकर जी


गणेश दिव्यता की निराकार शक्ति हैं जिनको क्तों के लाभ के लिए एक शानदार रूप में प्रकट करा गया है. गण यानि समूह. ब्रह्मांड परमाणुओं और विभिन्न ऊर्जाओं का एक समूह है. इन विभिन्न ऊर्जा समूहों के ऊपर यदि कोई सर्वोपरि नियम न बन कर रहे तो यह ब्रह्माण्ड अस्त व्यस्त हो जाएगा. परमाणुओं और ऊर्जा के इन सभी समूहों के अधिपति गणेश है. वह परमतत्व चेतना हैं जो सब में व्याप्त है और इस ब्रह्मांड में व्यवस्था लाती

है.


आदि शंकर ने गणेश के सारतत्व का बड़ा सुन्दर वर्णन करा है. हालांकि गणेश भगवान को हाथी के सिर वाले रूप में पूजा जाता है, उनका यह स्वरूप हमें निराकार परब्रह्मरूपा की ओर ले जाने के लिए है. वे “अजम निर्विकल्पम निराकारमेकम” हैं. अर्थात वे अजन्मे है, गुणातीत है, व निराकार है और उस परमचेतना के प्रतीक हैं जो सर्वव्यापी है. गणेश वही शक्ति है जिस कारण से इस ब्रह्मांड का सृजन हुआ, जिससे सब कुछ प्रकट हुआ और जिसमें यह सब कुछ विलीन हो जाना है.

हम सब इस कहानी से परिचित हैं कि गणेश जी

कैसे हाथी के सिर वाले भगवान बने. शिव और पार्वती उत्सव मना रहे थे जिसमें पार्वती जी मैली हो गयीं. यह एहसास होने पर वे अपने शरीर पर लगी मिट्टी को हटाकर उससे एक लड़का बना देती हैं. वह स्नान करने जाती हैं और लड़के को पहरेदारी करने के लिए कहती है. जब शिव लौटते हैं, वह लड़का उन्हें पहचान नहीं पाता है और उके रस्ते को रोक देता है. तब शिवजी लड़के के सिर को काट देते हैं और अन्दर प्रवेश कर जाते हैं. पार्वती चौंक जाती हैं. वे समझाती हैं कि वह लड़का उनका बेटा था और शिव जी को हर हालत में उसे बचाने का निवेदन करती हैं. शिव जी अपने सहायकों को उत्तर दिशा की ओर इशारा करते हुए किसी सोते हुए का सिर लाने के लिये हते हैं. तब सहायक हाथी का सिर लेकर आते हैं जिसे

शिवजी लड़के के धड़ से जोड़ देते हैं और इस तरह गणेश की उत्पत्ति होती है.


क्या यह सुनने में कुछ अजीब सा है? पार्वती के शरीर पर मैल क्यों आया? सब कुछ जानने वाले शिव अपने ही बेटे को क्यों नहीं पहचान सके? शिव जो शांति के प्रतीक हैं उनमें क्या इतना गुस्सा था कि वे अपने ही बेटे का सिर काट दें? और गणेश का सिर हाथी का क्यों है? इसमें कुछ और गहरा रहस्य छिपा हुआ है.

पार्वती उत्सव की ऊर्जा का प्रतीक है. उनके मैला

होना इस बात का प्रतीक है कि उत्सव के दौरान हम आसानी से राजसिक हो सकते हैं या अपने अन्दर किसी चीज़ के प्रति ज्वर ला सकते हैं जिससे हम अपने केन्द्र से विचलित हो जायें. मैल अज्ञानता का प्रतीक है और शिव भोलेभाव, परमशांति और ज्ञान के प्रतीक है. गणेश ने शिव के पथ को रोका का अर्थ यह है कि अज्ञानता (जो इस सिर का गुण है) ज्ञान को पहचान नहीं पायी. फिर ज्ञान को अज्ञानता मिटानी पड़ी. इसका प्रतीक यही है कि शिव ने गणेश के सिर को काटा.


और हाथी का सिर क्यों? ज्ञान शक्ति और कर्म शक्ति दोनों

का प्रतिनिधित्व हाथी करता है. हाथी के गुण सिद्धांतत: बुद्धि और अप्रयत्नशीलता है. हाथी का बड़ा सिर बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक है. हाथी न तो किसी अवरोध से बचने के लिये घूम कर निकलता है और न ही कोई बाधा उसे रोक पाती है. वह सभी बाधाओं को हटाते हुए सीधे चलता रहता है यह अप्रयत्नशीलता का लक्षण है. तो जब हम भगवान गणेश की पूजा करते हैं तो हमारे भीतर भी यही हाथी वाले गुण आ जाते हैं.

गणेश का बड़ा पेट उदारता और पूर्ण स्वीकृति का प्रतीक है. गणेश के अभय मुद्रा में उठे हुए हाथ, संरक्षण का प्रतीक है - "घबराओ नहीं - मैं तुम्हारे साथ हूँ" और उनका दूसरा हाथ नीचे की तरफ है और हथेली बाहर की ओर है – जो कहती है कि वह निरंतर हमें दे रहे हैं वह साथ ही हमें समर्पण करने के लिए निमंत्रण दे रहे हैं - वह इस तथ्य की तरफ़ भी इंगित करती है कि एक दिन हम सभी को इस पृथ्वी में समा जाना है. गणेश जी का एक ही दंत है जो कि एकाग्रचित् होने का प्रतीक है. उनके हाथों में जो उपकरण हैं उनका भी प्रतीक है. वह अपने हाथों में अंकुश लिये हुए हैं जो कि सजगता का प्रतीक है और पाश है जो नियंत्रण का प्रतीक है. चेतना जागृ

त होने पर बहुत ऊर्जा निकलती है जो बिना किसी नियंत्रण के अस्त व्यस्त हो जायेगी.

और हाथी के सिर वाले गणेश की सवारी इतने छोटे से चूहे पर क्यों होती है? यह बात असंगत सी लगती है न? यहाँ भी एक प्रतीक है जो बहुत गहरा है. जो बन्धन बाँध कर रखते हैं उसे चूहा कुतर कुतर कर समाप्त कर देता है. चूहा उस मंत्र की भांति है जो धीरे-धीरे अज्ञान की एक-एक परत को काट कर भेद देता है, और उस परमज्ञान की ओर ले जाता है जिसका प्रतिनिधित्व गणेश करते हैं.

हमारे प्राचीन ऋशि बहुत बुद्धिमान थे, उन्होंने दिव्यता को शब्दों के बजाय प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त करा क्योंकि समय के साथ शब्द बदल जाते हैं परंतु प्रतीक समयातीत होते हैं. इन गहरे प्रतीकों को हम भी मन में रखें जब हम सर्वव्यापी शक्ति को गजानन गणेश के रूप में अनुभव करें, और साथ ही इसके प्रति भी पूर्ण सजगता रखें कि गणेश हमारे भीतर ही हैं. गणेश चतुर्थी उत्सव मनाते समय हमें इसी

ज्ञान को उठाना चाहिये

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August 15, 2009

जन्माष्टमी : सबसे आकर्षक का जन्म - परम पूज्य श्री श्री रविशंकर


जन्माष्टमी भगवान कृष्ण के जन्म का उत्सव है । अष्टमी का अर्ध चंद्र महत्वपूर्ण है क्योंकि वह इस बात का प्रतीक है कि सत्य के भी प्रकट तथा अप्रकट पहलु हैँ जिनमें पूर्ण समन्वय है; प्रकट है पदार्थ संसार तथा अप्रकट है आध्यात्मिक क्षेत्र । इस संसार में लोग चरम की ओर प्रवृत होते हैं। जो पदार्थ जगत की क्रिया कलापों में लिप्त हैं वे जड़ हो जाते हैं, तथा वे जो आध्यात्म में डूबे हैं “अवधूत” हो जाते हैं - अपने आस पास की दुनिया से अनभिज्ञ रहते हैं।

अष्टमी को कृष्ण का जन्म पदार्थ तथा आध्यात्मिक संसार दोनो पर उनके संपूर्ण स्वामित्व को व्यक्त करता है । वह एक महान शिक्षक तथा आध्यात्मिक प्रेरणास्त्रोत हैं तथा साथ ही एक परिपूर्ण राजनीतिज्ञ भी । एक तरफ़ वे योगेश्वर हैं (योग के स्वामी- वह स्थिति जिसे पाने की अभिलाषा सभी योगी रखते हैं) तथा दूसरी तरफ़, वह एक चोर हैं । कृष्ण की सबसे बड़ी निपुणता यह है कि वह एक ही समय में संतों से भी अधिक केंद्रित हैं तथा साथ ही नटखटपने से भरपूर भी ! उनके व्यवहार में दोनों चरम समाहित हैं साथ ही दोनों चरम का पूर्ण संतुलन है । शायद इसीलिए कृष्ण का व्यक्तित्व समझना इतना कठिन है । अवधूत बाह्य संसार के प्रति उदासीन है तथा सांसारिक व्यक्ति, एक राजनेता या एक राजा आध्यात्मिक संसार से अनभिज्ञ है । किन्तु कृष्ण, द्वारिकाधीष तथा योगेश्वर दोनों हैं !

और फिर कृष्ण द्वारा प्रयोग की गई नीतियाँ भी अतुलनीय हैं । किसी भी संत या पैगंबर ने कभी ऐसी नीति प्रयोग नहीं की । कृष्ण का जीवन एकांतवासी साधु का नहीं था वह पूर्णतः कर्मठता से युक्त था । प्रत्येक क्षण घटनाओं से युक्त था, फिर भी सभी घटनाओं से निर्लिप्त । कृष्ण ने दिखाया कि वस्तव में जीवन आनंद है, उत्सव है । केवल कोई कृष्ण ही युद्ध स्थल पर ज्ञान दे सकता है, भोजन, गुण, भक्ति तथा आत्म ज्ञान की बात कर सकता है । और केवल अर्जुन ही उसे समझ सकता है । कल्पना करो कोई हाथ में बंदूक लिए खड़ा हो तथा सत्व, रजस तथा तमस की समीक्षा कर रहा हो । केवल ब्रह्म में स्थित व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है क्योंकि सभी घटनाओं पर उसका नियंत्रण है, या वह सभी घटनाओं के परे है ।

कृष्ण का ज्ञान हमारे समय में बहुत प्रासंगिक है, यह तुम्हें पूरी तरह से पदार्थ में लिप्त होने से रोकता है तथा साथ ही पूर्णतः उससे विमुख भी नहीं करता । यह तुम्हारे जीवन में नई ऊर्जा भर देता है । एक थके हुए तनाव युक्त व्यक्तित्व को अधिक केंद्रित तथा सक्रिय व्यक्तित्व बना देता है । कृष्ण हमें कुशलता युक्त भक्ति का ज्ञान देते हैं । अधिकतर कुशल व्यक्तियों में संवेदनशीलता तथा भक्ति का आभाव होता है तथा सरल तथा श्रद्धावान व्यक्तियों के कार्यों में कुशलता की कमी होती है । कृष्ण के व्यक्तित्व में श्रद्धा तथा कार्यकुशलता के इन विपरीत मुल्यों का श्रेष्ठ संयोजन है । गोकुलाष्टमी उत्सव मनाने का अर्थ है पूर्णतः विपरीत किन्तु एक दुसरे के अनुकूल गुणों को आत्मसाध करना तथा उन्हें जीना ।

कृष्ण का अर्थ है सबसे आकर्षक - आत्म या अस्तित्व । सभी का आत्म कृष्ण है तथा जब हमारे व्यक्तित्व से हमारा सच्चा स्वभाव प्रकट होता है तब, कुशलता तथा संपन्नता स्वयं आने लगती हैं । जैसा कि कृष्ण ने गीता में कहा, वह समर्थ में सामर्थ्य हैं, ज्ञानी में ज्ञान, सुन्दर में सुंदरता तथा गंभीर में गांभीर्य हैं । वह सभी जीवों की जीवन ऊर्जा हैं । और जन्माष्टमी वह दिन है, जब आप कृष्ण के उस विराट स्वरूप को अपनी चेतना में फ़िर से जागृत करते हैं । आपने सच्चे स्वभाव से अपना जीवन जीना ही कृष्ण के जन्म का वास्तविक रहस्य है ।

इस प्रकार जन्माष्टमी मनाने का सबसे सार्थक तरीका है यह जानना कि आप की दो भूमिकाएँ हैं - राष्ट्र का ज़िम्मेदार नागरिक होना तथा साथ ही यह समझना कि आप सभी घटनाओं से परे हैं - निरंजन ब्रह्म । जन्माष्टमी मनाने का वस्तविक तात्पर्य है अपने जीवन में थोड़ा सा अवधूत तथा थोड़ी सी क्रियाशीलता का समावेश करना ।

August 13, 2009

आयुर्वेद स्वाइन फ़्लू का इलाज - श्री श्री

''आयुर्वेद स्वाइन फ्लू का प्रभावकारी मुकाबला कर सकता है'' श्रीश्री

बैंगलुरु, 12 अगस्त 2009, आतंकित न होने के लिये आग्रह करते हुए, द आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक परम पूज्य श्री श्री रविशंकर जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति मे कहा '' भारत के पास ''आयुर्वेद के ज्ञान का वैभव है जो स्वाइन फ्लू का मुकाबला कर सकता है''

इस पर विस्तार से चर्चा करते हुए श्री श्री आयुर्वेद केन्द्र के वरिष्ठ आयुर्वेदिक चिकित्सक ड़ॉ मणीकांतन एवं ड़ॉ निशा मणीकांतन ने बताया कि ''स्वाइन फ्लू शरीर मे प्रतिरक्षा के बिगड जाने से आक्रमण करता है । आयुर्वेद सरल और प्रभावशाली उपाय बताता है जो प्रतिरक्षा और प्रतिरोध के निर्माण मे बढ़ोत्तरी करता है । लक्ष्मी तरु ( वनस्पति शास्त्र का नाम -सीमारुबा) की पत्तियो की चाय, तुलसी, ऑवला और अमृत ( गिलोय) प्रतिरक्षा को बढ़ाने का कार्य करते है । इसके अतिरिक्त और वैकल्पिक रुप से अदरक और हल्दी का चूर्ण को नींबू के रस या शहद के साथ दिन मे दो बार लिया जा सकता है ।''

वायु वाहित स्वाइन फ्लू वायरस का मुकाबला करने के लिये सम्बरानी धूप (लोभान की ड़ंठल) को दिन मे दो बार जलाना चाहिये । सम्बरानी बहुत शक्तिशाली वायुमंडलीय निष्कीटक होता है, यह भी चिकित्सको ने कहा ।

श्री श्री ने यह भी कहा '' इसके अतिरिक्त, हमारा मन प्रतिरक्षा मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । जब भी हम आतंकित और भय मे होते है तो हमारा प्रतिरक्षा कर स्तर निचे चला जाता है । प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास हमे शांत रखने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अखिल भारतीय आर्युविज्ञान ( एम्स, नई दिल्ली), राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान(नीमहंस, बैंगलुरु) मे स्वतंत्र शोध के अनुभव पता चलता है कि प्राण्ाायाम और ध्यान जैसे अभ्यास प्रतिरक्षा मे तीन गुना बढ़ोत्तरी करते है । यदि हम इन अभ्यासो और सरल आयुर्वेदिक नुस्को का समावेश अपने दिनचर्या मे कर ले तो हम स्वाइन फ्लू का आसानी से मुकाबला कर सकते है ।''

http://www.youtube.com/watch?v=soqjU2k5pdc

August 7, 2009

वापस दिल की ओर

एक बार मछलियों का एक सम्मेलन हुआ, जो वहाँ पर इसलिए एकत्रित हुई थीं कि इस बात पर विचार-विमर्श कर सकें कि उनमें से किसने सागर को देखा है। उनमें से कोई भी यह नहीं कह सकी कि वास्तव में उन्होंने सागर को देखा था। तब एक मछली ने कहा, ''मेरे विचार से मेरे परदादा ने समुद्र देखा था''। एक दूसरी मछली ने कहा, ''हाँ, हाँ मैंने भी इसके बारे में सुना है''। तीसरी मछली ने कहा, ''हाँ वास्तव में उसके परदादा ने सागर देखा था''। फिर उन्होंने एक बड़ा सा मन्दिर बनाया और उस मछली के परदादा की एक मूर्ति स्थापित की। उन्होंने कहा, ''इन्होंने सागर देखा था। वे सागर से जुड़े हुए थे''

ठीक यही बात उन लोगों के साथ भी है, जो साधना के पथ पर चल रहे हैं और दिव्यता को जानने के लिए उत्सुक हैं। दिव्यता क्या है? मैं तुम्हें बताता हूँ। दिव्यता एक हँसी-खेल की तरह से है। यह उसी समुद्र की मछली की तरह से है, जो समुद्र की खोज कर रही है। दिव्यता हमारी आत्मा के केन्द्र में है, अपनी आत्मा के अन्दर जाने और वहाँ से अपना जीवन जीने की तरह से है।

हम सभी इस संसार में भोलेपन का उपहार लेकर आए है, लेकिन धीरे-धीरे जैसे हम अधिक बुध्दिमान होते गए, हमारा भोलापन समाप्त होता गया। हम शान्ति के साथ पैदा हुए और जैसे-जैसे बड़े हुए, हमने अपनी शान्ति खो दी और हम शब्दों से भर गए। हम हृदय से जीते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, हम हृदय से मस्तिष्क की ओर चले गए। इस यात्रा को विपरीत दिशा में ले जाना ही दिव्यता है। यह अपने मस्तिष्क से हृदय की तरफ की यात्रा है, शब्दों से शान्ति की तरफ तथा हमारी बुध्दिमत्ता के साथ-साथ भोलेपन की तरफ वापसी है। यद्यपि यह बहुत सरल है, लेकिन यह बहुत बड़ी उपलब्धि है।

परिपक्वता की स्थिति प्राप्त करना और किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना दिव्यता है। कुछ भी हो, तुम्हारे चेहरे की मुस्कान को कोई भी नहीं छीन सकता है। सीमित दायरे के बाहर जाना और इस बात का अनुभव करना कि इस ब्रह्माण्ड में जो भी कुछ है, वह मेरा है, दिव्यता है।

अदिव्यता को परिभाषित करना आसान है। यह, मैं इस स्थान विशेष का हूँ, कहकर अपने को सीमित करना है। मैं इस संस्कृति का हूँ या मैं इस धर्म का हूँ, कहकर अपने को सीमित करना है। यह उसी तरह से है जैसे बच्चे कहते हैं कि मेरे पिताजी तुम्हारे पिताजी से अच्छे हैं या मेरा खिलौना तुम्हारे खिलौने से अच्छा है। मेरा विचार है कि अधिकांश लोग अभी भी इसी मानसिक आयु से चिपके हुए हैं, जबकि खिलौने बदल चुके हैं। युवक कहते हैं कि मेरा देश तुम्हारे देश से अच्छा है या मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से अच्छा है।

एक इसाई कहेगा बाइबिल सत्य है, जबकि एक हिन्दू कहेगा कि वेद सत्य है और वे प्राचीन हैं। मुसलमान कहेंगे, कुरान खुदा का अन्तिम शब्द है। किसी वस्तु को हम केवल इसलिए महिमामयी बताते हैं क्योंकि हम उस संस्कृति के हैं, इसलिए नहीं कि वह क्या है। यदि कोई व्यक्ति उन सभी चीजों की जिम्मेदारी ले सके, जो युगों-युगों से है और यह अनुभव करे कि यह सब मेरा है, तब यह परिपक्वता है। यह मेरी सम्पत्ति है, क्योंकि मैं ईश्वर का हूँ। ईश्वर ने समय और स्थान के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न ज्ञान दिए। कोई भी व्यक्ति पूरे ब्रह्माण्ड का ज्ञाता हो सकता है और कह सकता है कि जितने भी सुन्दर फूल हैं वे सब मेरे उपवन के हैं।

मानव का सम्पूर्ण विकास ''कुछ होने'' से ''कुछ न होने'' की तरफ तथा ''कुछ भी न होने'' से ''सबका होने'' का है। दिव्यता, भोलेपन और बुध्दिमत्ता का एक दुर्लभ संगम है; शान्त रहते हुए उसी समय अपने को व्यक्त करने के लिए शब्दों की क्षमता रखना। उस समय मन पूर्ण रूपेण वर्तमान क्षण में होता है। जो भी आवश्यक है उसका तुम्हें एक प्राकृतिक और अविरल रूप में ज्ञान दिया जाता है, बस तुम शान्त रूप से बैठो और प्रकृति का संगीत तुम्हारे अन्दर से प्रवाहित होता है।