पाकिस्तान में पैदा हो रही दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में हमारे लिए एक सीख निहित है. बटवारे के बाद पाकिस्तान की जनसंख्या में पन्द्रह प्रतिशत हिंदू और दो प्रतिशत इसाई थे. आज अल्पसंख्यक कम हो कर एक प्रतिशत रह गए हैं. यदि पाकिस्तान ने विविधता को प्रोत्साहित किया होता तो नई पीढ़ी बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक समाज में पली बड़ी होती तथा और अधिक सहिष्णु होती.
जनरल जिया उल हक ने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में योजनाबद्ध तरीके से इस बहुसांस्कृतिक धरोहर को मिटाकर इसे उग्र उन्मूलन वादी इस्लामी नागरिक समाज एवं सेना में बदल दिया. समृद्ध हिंदू सिख एवं बौद्ध सांस्कृतिक धरोहर जो भारत और पाकिस्तान दोनों में समान रूप से थी - उसे भुला दिया गया. यदि उन्होंने पहचान लिया होता कि उनके पूर्वज भी इन्हीं परम्पराओं के भागीदार थे और अगर उन्होंने इन मूल्यों को अपनाया होता और जीवित रखा होता तो शायद इससे उन्हें और अधिक सहिष्णु एवं कम उग्र बनाया होता. जब लोग अपनी परम्पराओं का त्याग कर देते हैं तो यह उन्हें और अधिक असहिष्णु और कट्टर बना देता है.
पाकिस्तान एक समय ज्ञान आर्जन की भूमि थी जहाँ तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय फले फूले और आयुर्वेद की लीपियाँ लिखी गयीं. भारत के विपरीत उसने अपनी बहु परम्परा को भुला दिया है. भारत में, जहाँ मुग़ल शासन के योगदान को पहचाना जा रहा है और सम्मानित किया जा रहा है, वहीं पाकिस्तानी विद्यार्थियों की पीढियाँ एक-संस्कृति एवं एक-धर्म की शिक्षा पा रही जो उन्हें कट्टर बना रही है. अपने स्वयं की परम्पराओं के प्रति अनभिज्ञता की पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी पड़ी है.
जब कुछ साल पहले मैं पाकिस्तान गया था तब मैं बहुत से पत्रकारों से मिला, हजारों लोगों से बातचीत करी. मुझे हैरानी हुई की लोग भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन तथा महात्मा गाँधी एवं उनके अहिंसा एवं क्षमा के नियमों के बारे में भी बहुत कम जानते हैं. युवा लोग जिन्हें मैं वहां मिला उन्हें आयुर्वेद , योग एवं सम्पन्न सांस्कृतिक और वैदिक परम्पराओं में से किसे की भी जानकारी बहुत कम थी जो कभी दोनों देशों का सांझा ज्ञान था.
सहिष्णुता और दूसरी संस्कृति के प्रति सम्मान बहुत छोटी आयु से ही पोषित करने होते हैं. पाकिस्तान के बच्चे भक्ति आन्दोलन एवं अध्यात्मिक पुनर्जागरण के बारे में कुछ भी नहीं जानते जिसका की यह उपमहाद्वीप कभी साक्षी रहा है. महात्मा गाँधी के बारे में उन्हें सिर्फ़ इतना ही पता है की वह एक हिंदू संत एवं स्वतंत्रता सेनानी थे. वास्तव में वे बहुत से सिख गुरु एवं संतों के बारे में भी बहुत कम जानते हैं जो पाकिस्तान में घूमे और रहे थे. और यहाँ तक की वे लोग भी जैसे की चाणक्य जिन्होंने अर्थशास्त्र लिखा और अपने जीवन का बहुत सा भाग तक्षशिला में ही जिया - उनके बारे में भी पाकिस्तान के बच्चों की जानकारी नहीं के बराबर ही है.
इतिहास के किताबों के साथ छेड़खानी कर के शिक्षाविदों ने समाज को भीषण हानि पहुंचाई है. वह मासूम शक्ति जिसे वह नियंत्रित करते प् रतीत होते थे उसने अंत में लोगों में कठोर दृष्टिकोण उत्पन्न कर दिया.
अतिवादी समूह जो ज़्यादातर उन लोगों से बना होता है जिन्हें ज्ञान के विस्तृत स्वरूप में शिक्षित नहीं किया गया होता वे बहुत संकीर्ण एवं पूर्वाग्रही होते हैं. दुर्भाग्य से भारत में भी यह धारणाएं देखी जा सकती हैं. विद्यालयों एवं शिक्षण संस्थाओं में वंदे मातरम गाने के विरोध, गणेश उत्सव में भाग लेने के लिए एक कलाकार के नाम पर फतवा जारी करने और वैलेंटाइन डे पर आपत्ति के रूप में.
इनका पूरा समाज के द्वारा एक स्वर में विरोध होना चाहिए. एक सम्पूर्ण समाज सदैव समन्वय एवं शांति को प्रोत्साहित करेगा तथा अतिवाद पर अंकुश लगायेगा. यह तो स्पष्ट है की नक्सलवादी और धार्मिक कट्टरपंथी जो भारत में और सीमा पार हिंसा के संरक्षण करते हैं उनमे महात्मा गाँधी के लिए ज़रा भी सम्मान नहीं है.
बटवारे के बाद से भारत में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या गुणांकों में बढ़ी है. वहीं पाकिस्तान की अल्पसंख्यक जनसंख्या एक प्रतिशत तक गिर गई है. पाकिस्तान की सबसे बड़ी गलती है अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन नहीं करना. पन्द्रह प्रतिशत हिन्दुओं ने देश को अधिक लोकतांत्रिक एवं मुक्त समाज में बदल दिया होता. किंतु पाकिस्तान ने हिन्दुओं को या तो नष्ट कर दिया, परिवर्तित कर दिया, या भगा दिया और इनकी जगह एक-धर्मी कट्टरपंथियों को स्थापित कर दिया. इसने पाकिस्तान को अस्थिरता और रूढिवादिता की और अग्रसित किया.
भले ही भारत में धार्मिक तनाव देखा है, फिर भी समाज अधिकतर सहिष्णु है. किसी एक धर्म की अतिवादिता उसी एक में सीमित नहीं रहती, उसकी परछाईं दूसरों पर भी गिरती है जो म्यानमार, थाईलैंड एवं मलेशिया में बौद्ध भिक्षुओं के सड़क पर उतर आने से प्रमाणित होता है.
हिंदू अल्पसंख्यकों का सम्मान पाकिस्तान की इस्लामी पहचान के लिए खतरा नहीं होता, क्योंकि हिन्दुओं में धर्मान्तरण की कोई प्रथा नहीं है. ६० वर्ष पूर्व जन्में दो राष्ट्रों ने स्पष्ट रूप से भिन्न रस्ते अख्तियार करे. अभी भी देर नहीं हुई है कि पाकिस्तान के लोग यह पहचान लें कि कुछ ग़लत हो गया है एवं लोकतंत्र के साथ साथ बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक, स्त्री-पुरूष समानता और शान्ति एवं अहिंसा के प्रति सम्मान को भी वापस ले आयें. पाकिस्तान के पास अवसर है केवल तभी तक जब वह गहरी नींद से जागे जो कुछ धर्मान्धों ने उसपे लाद दी है.