May 24, 2009

सम्मान और आधिपत्य

साप्ताहिक ज्ञानपत्र  322 
24 सितम्बर, 2001 
बंगलौर आश्रम 
भारत    

जिसके प्रति तुम्हारा आधिपत्य होता है प्राय: उसके प्रति तुम्हारा आदर नहीं रहता। जो कुछ हम हासिल कर लेते हैं प्राय: उसके प्रति हमारा सम्मान क्षीण हो जाता है, यह हमसे अनजाने में ही होता है। 

जिसका तुम आदर करते हो वह तुम से बड़ा हो जाता है। जब तुम में अपने सभी सम्बन्धों के प्रति सम्मान होता है तब तुम्हारी अपनी चेतना का विस्तार होता है। तव छोटी छोटी चीज़ें भी बड़ी और महत्वपूर्ण प्रतीत होती है। हर तुच्छ जीव गरिमापूर्ण प्रतीत होता है। हर सम्बन्ध के पीछे जो सम्मान होता है वही उस सम्बन्ध को बचा पाता है। 

जब तुम सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रति सम्मान रखते हो तब तुम्हारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से सामंजस्य होता है। तब तुम्हें इस ब्रह्माण्ड की किसी भी चीज़ का परित्याग या अस्वीकार करने की आवश्यकता नहीं होती।   

जो भी तुम्हें मिला है उसका सम्मान करने से तुम लोभ, ईर्ष्या और कामवासना से मुक्त हो जाते हो। जीवन के हर पल का आदर रखने का कौशल बनाओ।

May 23, 2009

हार और जीत

आज,  भारत में एक नई सरकार बनी है. इस नई सरकार के लिए दो सलाह हैं: 


पहली सलाह उनके लिये जो जीत गये हैं – उन्हें सोचना चाहिये कि 'हम जीत गए, लोगों ने हम पर भरोसा किया है, तो हमें विनम्र होना चाहिए.' विनम्रता बढ़ाएँ. जो लोग हार गये उनको प्यार से देखें. उनके साथ हमदर्दी रखें. युद्ध के समय एक अलग स्थिति होती है : आप लड़ाई लड़ो । लेकिन जब युद्ध खत्म हो गया तब स्थिति भिन्न हो जाती है.  दुश्मन को गले लगाओ. घावों पर मलहम लगाओ.

अब जो हार गये उनके लिये सलाह। जब तुम हारते हो तब तुम जो चाहते हो वह नहीं होता. तब फिर कई विकल्प उत्पन्न होते हैं-

कुंठा 
अवसाद 
क्रोध 

ये तीन विकल्प तुम्हें सही रास्ते पर जाने से रोकते हैं, जिसके कारण तुम्हें नुकसान होता है. 
चौथा विकल्प है कि, 'यह भगवान की इच्छा है.' इस तरह, हम बुरी भावनाओं से छुटकारा पा जाएंगे, और सकारात्मक  कार्य में लग जाओ. मन को शांत कर कुछ रचनात्मक कार्य में खुद को संलग्न कर लो. अवसादग्रस्त होकर कुछ नहीं मिलेगा. अन्यथा न तो स्वयं की प्रगति होती है और न ही है समाज की. 
हारी हुई पार्टी को यह सोचना चाहिए कि  'हमने अपनी पूरी कोशिश करी,  लेकिन जो होना था, सो हुआ.’ 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन:,  अपने कर्म के फल की अपेक्षा किये बिना अपना कर्तव्य करो. जो भी फल मिले उसको स्वीकार करो - भूतकाल के प्रति समर्पण की भावना ही सच्चा समर्पण है. सच्चा समर्पण भगवान पर फल फूल चढ़ाना नहीं है. भगवान के लिए अतीत के कचरे का समर्पण असली समर्पण है. भगवान इस कचरे को  फूलों और फल में बदल देते हैं. 
इसलिए, भूतकाल पर गुस्सा मत हो, अवसाद में मत जाओ. नफरत का कोई मतलब नहीं है, और कुछ नहीं करने का भी कोई मतलब नहीं है. बुद्धिमानी की निशानी है कि समर्पण करके आगे बढ़ें. 
यह हर देश में होता है. जंग होती है, कोई जीतता है और कोई हारता है. 
जो जीते उन्हें अधिक विनम्रता दिखानी चाहिए, और अधिक सम्मानजनक होना चाहिये . उन्हें विश्वास करना चाहिए कि: 'दूसरी पार्टी इसलिये हारी ताकि हमें खुशी मिले.' यदि वे इस तरह से सोचते हैं, तो वे अपने खुशी-दाता को अपमानित नहीं करेंगे और हारे हुए का सम्मान करेंगे. 
भगवान जानते हैं कि किसे कहाँ पर रखें. भगवान का निर्णय स्वीकार करो. लोगों को इस तरह से सोचना चाहिए. जीत और हार जीवन का हिस्सा हैं. इस पद्धति को पहचान कर इसके ऊपर उठना ही विकास की निशानी है.