रंगों में रम कर प्रसन्नचित हो जायें
श्री श्री रविशंकर जी द्वारा
होली रंगों का त्योहार है । यह संसार कितना रंगभरा है । प्रकृति की तरह ही हमारी भावनाओं तथा संवेदनाओं का रंगों से संबंध है - क्रोध का लाल, ईर्ष्या का हरा, आनंद और जीवंतता के लिए पीला, प्रेम का गुलाबी, नीला विस्तृतता के लिये, शांति के लिये श्वेत, बलिदान का केसरिया और ज्ञान का जामुनी । प्रत्येक मनुष्य एक रंगीन फव्वारा है जिसके रंग बदलते रहते हैं ।
पुराण में अनेक सुन्दर दृष्टांत एवं कथाएं हैं – उसमें होली की भी एक कहानी है । असुरराज हिरण्यकश्यप चाहता था कि सभी उसी की पूजा करें । परंतु उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था, जिनसे राजा की कट्टर दुश्मनी थी । क्रोधित राजा चाहता था कि उसकी बहन होलिका, प्रहलाद से छुटकारा दिलाये । अग्नि को सहन करने कि शक्ति से युक्त होलिका, प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि के कुन्ड में बैठी गयी । लेकिन, होलिका जल गई, प्रहलाद सुरक्षित रहा ।
हिरण्यकश्यप स्थूलता का प्रतीक है । प्रहलाद भोलेपन, श्रद्धा एवं आनंद की प्रतिमूर्ति है । चेतना को केवल भौतिक पदार्थ के प्रेम तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता । हिरण्यकश्यप चाहता था कि उसका सारा आनंद भौतिक संसार से ही प्राप्त हो, लेकिन ऐसा हुआ नहीं । जीवात्मा सदैव सांसारिक पदार्थों के बन्धन में नहीं रह सकती । स्वभावतः वह ‘नारायण’, अपने उच्च स्वयं, की ओर अग्रसित होगी ही ।
होलिका भूतकाल की बोझिलता की प्रतिनिधि है, जो प्रहलाद के भोलेपन को नष्ट करने के लिए प्रतिबद्ध है । किन्तु प्रहलाद नारायण की भक्ति में इतनी गहराई से स्थित है कि, अपने सभी पुराने संस्कारों को, प्रभावों को, मिटा देता है और आनंद खिल उठता है नये रंगों के साथ ! जीवन एक उत्सव बन जाता है । भूत की छाप को मिटा कर आप नई शुरुआत के लिए उद्यत होते हैं । आपकी भावनाएं अग्नि की तरह आप को जलाती हैं । किन्तु जब वह रंगों की फुहार सी हों, तो आप के जीवन में रंग भर देती हैं । अज्ञानता में भावनाएं कष्टकारी हैं, ज्ञान में यही भावनाएं जीवन के भिन्न रंग हैं ।
होली की तरह ही जीवन भी रंगों भरा होना चाहिए ना कि उबाऊ । जब सभी रंग स्पष्ट देखे जायें तब वह रंग भरा है, जब सभी रंग घुल जाते हैं, वह हो जाता है - “काला” । जीवन में हम विभिन्न भूमिकएं निभाते हैं । प्रत्येक भुमिका एवं भावना स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए । आस्पष्ट भावनाएं कष्ट उत्पन्न करती हैं । जब आप एक पिता हैं, आपको पिता का पात्र निभाना है । कार्यस्थल पर आप पिता नहीं हो सकते ! जब आप जीवन की विभिन्न भूमिकाओं को मिश्रित करते हैं तब आप से गलतियाँ होनी शुरू होतीं हैं । आप अपने जीवन में जो भी पात्र निभा रहे हैं पूर्ण रूप से उस ही में हों । विविधता में समन्वयता जीवन को अधिक जीवंत एवं रंग भरा बनाती है ।
जीवन में आप आनंद का जो भी अनुभव करते हैं वह आप को स्वयं से ही प्राप्त होता है - जब आप वह सभी छोड़ कर शांत हो जाते हैं, जिसे आपने जकड़ा हुआ है । यह ही ध्यान कहलाता है । ध्यान कोई क्रिया नहीं है यह कुछ भी नहीं करने की कला है । ध्यान में आप को गहरी नींद से भी अधिक विश्राम मिलता है क्योंकि आप सभी ईच्छाओं के पार होते हैं । यह मस्तिष्क को गहरी शीतालता देता है । यह मस्तिष्क शरीर तंत्र को पुनर्जीवन देने के समान है ।
उत्सव चेतना का स्वभाव है, तथा वह उत्सव जो मौन से उत्पन्न होता है वह ही वास्तविक है । यदि उत्सव के साथ पवित्रता को जोड़ दिय जाए तो वह पूर्ण हो जाता है । केवल शरीर तथा मन ही उत्सव नहीं मनाता बल्कि चेतन्न भी उत्सव मनाती है, तथा उस स्थिति में जीवन रंग युक्त हो जाता है ।
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