साप्ताहिक ज्ञानपत्र 294
1 मार्च, 2001
उदय पुर जगमन्दिर
भारत
भय का दूसरा पहलू- भय की उपयोगिता
प्रकृति ने सभी जीवात्माओं में कुछ मात्रा में भय जन्मजात ही दिया है। यह भय जीवन को सुरक्षित व बचाकर रखता है। भोजन में जैसे नमक होता है उसी प्रकार मनुष्यों को न्यायोचित होने के लिए थोड़-से भय की आवश्यकता होती है।
दूसरों की क्षति होने का भय तुम्हें और अधिक सचेत करता है असफ़लता का भय तुम्हें और अधिक प्रखर और क्रियाशील बनाता है।
भय तुम्हें लापरवाही एवं असावधानी से सावधानी की ओर ले जाता है।
भय तुम्हें असंवेदनशीलता से संवेदनशाीलता की ओर ले जाता है।
भय तुम्हें नीरसता से सजगता की ओर ले जाता है।
बिल्कुल भी भय न होने की स्थिति में तुम हानिकारक प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर हो सकते हो। विकृत अहंकार भय को नहीं जानता। विस्तृत चेतना वाला व्यक्ति भी भय को नहीं जानता। अहंकार भय को नकार कर हानिकारक दिशा में जाने लगता है। एक ज्ञानी व्यक्ति इस भय को पहचानता है और ईश्वर की शरण में जाता है।
जब तुम प्रेममय होते हो और जब तुम समर्पित होते हो भय नहीं होता। अहंकारी भी भय को नहीं जानता। परन्तु इन दोनों निर्भीक स्थतियों में वैसी ही भिन्नता है जैसे कि पृथ्वी और स्वर्ग में।
भय तुम्हें न्यायनिष्ठ बनाता है, भय तुम्हें समर्पण के करीब ले जाता है, भय तुम्हें तुम्हारे पथ पर रखता है, भय तुम्हें विनाशकारी होने से रोकता है। शान्ति और नियम इस पृथ्वी पर भय के करण ही कायम हैं।
एक नवजात शिशु भय नहीं जानता- वह पूर्णत: अपनी माता पर निर्भर है। चाहे वह बालक हो या बिल्ली का बच्चा हो या पक्षी हो, जब वे स्वाधीन होने लगते हैं तब उन्हें डर का अनुभव होता है जिससे वे अपनी माता के पास दौड़ कर वापस आते हैं। जीवन रक्षा के लिए यह भय प्रकृति द्वारा जन्मजात दिया गया है।
इस प्रकार भय का उद्देश्य तुम्हें स्त्रोत की ओर वापस लाना है।
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