अगस्त 2000 में मेरी पत्नी संध्या टीचर्स द्रेनिंग कोर्स के लिये बंगलोर गई थी। कुछ दिन बाद, उनके पिता, जिन्हें पहले भी लकवे के दौरे पड़ चुके थे, को एक और दौरा पड़ा। वे पूरी तरह से बिस्तर पर पड़ गये थे, हाथ पैर ठीक से चला नहीं पा रहे थे, लोगों को पहचान नहीं पा रहे थे और किसी की बातचीत भी नहीं समझ पा रहे थे। उनके लकवे के इतिहास को देखकर, डॉक्टर असमजंस में थे कि वे जीवित बचेंगे अथवा नही। मैं मानसिक द्वंद की स्थिति में था। अगर मैं संध्या को बताता, वो वह कोर्स छोड़ कर अपने पिता के पास चली आती, और अगर मैं न बताता, तो मैं अपनी दृष्टि में दोषी बन जाता।
अंत में मैंने आश्रम फ़ोन कर गुरुजी के लिये एक संदेष छोड़ा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मुझे उत्तर मिला कि 'वह चाहे तो अपने पिता के पास जाये और फिर लौट कर आ जाये।' तब हमने संध्या को यह समाचार बताने का निर्णय किया। समाचार तथा गुरुजी का परामर्ष सुनने के बाद गुरुजी में अपनी अटूट आस्था के चलते संध्या को विष्वास हो गया की उनके पिता के साथ सब ठीक होगा। उन्होंने अपने पिता को फ़ोन किया, और आष्चर्य, वे उनकी आवाज़ पहचान गये। गुरुजी पर अपने पिता का दायित्व सौंप कर उन्होंने अपने प्रषिक्षण पर पूरा ध्यान लगाया। उनके पिता, जो पूरी तरह बिस्तर पर पड़े हुए थे, और शौचालय भी जाने में असमर्थ थे, अगले दो तीन दिन में आष्चर्यजनक प्रगति करने लगे और हफ्ते भर में ठीक हो गये। इस एक हफ्ते में ही उनमें इतनी शक्ति आ गई कि वे सपरिवार गुरुजी को अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने व आषीर्वाद लेने आश्रम पहुँच गये, और व्यक्तिगत रूप से गुरुजी से मिले। मैंने हौंगकौंग में, नवम्बर 1998 में बेसिक कोर्स किया था। विष्व भर में कई व्यक्तियों की तरह, मुझे भी कोर्स में एक ऐसा सुंदर अनुभव हुआ जो शब्दो में व्यक्त नहीं किया जा सकता। कुछ महीनों बाद, 1999 के आरंभ में, मुझे एक सपना आया जिसमें मैं गुरुजी से मिला और उन्होंने मुझे प्रेमपूर्वक गले से लगा लिया। अप्रैल 1999 के आरंभ में, मैंने सुना कि गुरुजी सिंगापुर में कुछ समय के लिये पधारेंगे। मैं अपनी पुत्री व एक संबंधी के साथ, उनके दर्षन के लिये, सिंगापुर पहुँचा। वे भक्तों से घिरे हुए थे और मैं कुछ ही समय के लिये उनसे मिल पाया। पर उस पहली मुलाक़ात नें मुझमें उनसे और मिलने की इच्छा जगा दी।
उसी साल मई में, हमारी कम्पनी ने निवेषकाें से मिलने के लिये यूरोप व अमरीका में रोड षो करने की योजना बनाई। यह रोड षो, अगले महीने यानी जून से शूरू होने वाले थे। उसी समय, संयोगवष, मैंने अपने एक मित्र से सुना कि गुरुजी अमरीका में लेक टाहो जाने वाले थे। हमारा अधिकारिक पूर्व नियोजित कार्यक्रम, न्यूयॉर्क व बोस्टन में था, और हौँग कौग लौटते हुए बीच में कुछ समय के लौस ऐंजिलिस भी रुकना था। चूँकि लेक टाहो का इलाका लौस ऐंजिलिस से बहुत दूर था, मैं निराष हो गया। मुझे लगा कि अगर वहाँ कि बजाय सैन फ्रांसिस्को में मीटिंग होती तो अच्छा रहता क्योंकि वहाँ से लेक टाहो थोड़ी ही दूर है। मैंने अपनी यह इच्छा गुरुजी को समर्पित कर दी।
उसी दिन के बाद, अचानक, हमारे निवेष सलाहकारों ने कहा कि वे लॉस ऐंजिलिस के बजाय सैन फ्रांसिस्को मीटिंग करना ज्यादा पंसद करेगे। बस, मुझे मौका मिल गया।
मुझे गाड़ी चलाना नहीं आता था। मैं सोचने लगा कि लेक टाहो तक जाने के लिये किराये पर वाहन ले लूँ। तभी मुझे याद आया कि हमारे सी.ई.ओ. नें भी बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स किया था, क्यों न उनसे पूछ लूँ कि क्या वे गुरुजी से मिलना चाहेंगे ? वे सहर्ष मान गये और मेरे बिना पूछे ही उन्होंनें मुझे अपनी गाड़ी में साथ चलने को कहा।
जब हम लेक टाहो पहुँचे, हमारा स्वागत ताईपेई की कुमारी ऐलिस जेन ने किया। उन्होंने बताया कि गुरुजी हमारे आने की उम्मीद कर रहे थे। कुछ और भक्तों के साथ हम उनके कुटीर पहुँचे। मुझे बिलकुल गुरुजी के बगल में बैठने का अवसर प्राप्त हुआ। फिर मैं आष्चर्यचकित रह गया जब गुरुजी ने मेरी मातृभाषा तेलगू में मुझसे बात की। मुझे उनसे बात करने में बहुत सहूलियत हुई। फिर उन्होंने हम सबको एक छोटा सा ध्यान कराया। जब हम लोग उठकर जाने बाले थे, तब गुरुजी ने बड़े प्रेम के साथ मुझे गले से लगा लिया, ठीक वैसे ही जैसा कि मैंने कुछ महीने पहले सपने में देखा था। मैं अपनी खुषी छुपा नहीं पा रहा था। उनकी ऑंखों का भाव तथा उनके रोम-रोम से प्रफुल्लित होते प्रेम का अनुभव ऐसा था जो मुझे पहले कभी नहीं हुआ। मैं समझ गया कि मैं मनुष्य रूप में दिव्यता का साक्षात अनुभव कर रहा हँ।
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