जबसे मैंने जीवन के चौथे दषक में कदम रखा, तब से मैं हदय रोगी रहा। मुझे ऐंजाइना के साथ, उच्च रक्त चाप व हाइपरटेन्षन भी था जिसके कारण मुझे बहुत सावधानी व परहेज़ करना पड़ता था। अड़तालीस वर्ष की आयु में मुझे दिल का दौरा पड़ा और तब से ही मुझे काफ़ी दवाईयाँ लेनी पड़ती थी। छप्पन वर्ष की आयु में पहली बार मेरे हदय का ऑपरेषन हुआ जब मेरी धमनियाें में रूकावट (ब्लॉकेज) पायी गयी। फरवरी 1998 में जब मुझे साँस लेने में अत्याधिक कष्ट होने लगा, तब मैंने विस्तृत जाँच करवायी। परीक्षणों से पता चला कि मैं मृत्यु की दहलीज़ पर खड़ा हुआ था। सभी डॉक्टरो ने मुझे जीने के लिये केवल 6 महीने दिये थे। मुझे सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने, यहाँ तक कि कमरे से बाहर जाने से भी मना किया गया था। कुछ कदम चलते ही मैं हाँफ़ने लगता था।
अपनी इस अवस्था में मैंने मई 1999 में संडे नामक पत्रिका में बेसिक (अब पार्ट-1) कोर्स के बारे में पढ़ा। मैंने आर्ट ऑफ लिंविंग के बेसिक कोर्स के षिक्षक नित्यानन्द से संपर्क किया। मैंने उन्हें अपनी परेषानी से अवगत कराया और उसके अगले सप्ताह ही बेसिक कोर्स किया। कोर्स के बाद, मेरी हालत में ज़बरदस्त सुधार हुआ। मैं चल-फिर सकता था और मेरे स्वास्थ्य में भी काफ़ी सुधार हुआ।
मैं ऋषिकेष में एडवांस्ड कोर्स करना चाहता था, इसलिये जुलाई में मैं अपने डॉक्टर के पास अपनी जाँच कराने गया, ताकि जान सकूँ कि मैं सफ़र करने लायक हँ कि नहीं। मेरी जाँच करके मेरे डॉक्टर अचंभे में पड़ गये। उन्होंने मुझसे पूछा ''क्या यह वहीं दिल है जिसकी मैंने पिछले महीने जाँच की थी?'' मैं बोला ''हाँ, पर कुछ बदल गया है। मैं आपकी दवाईयाँ लेने के साथ साथ सुदर्र्षन क्रिया भी कर रहा हँ।'' यह सुनकर डॉक्टर साहब हँसने लगे।
एडवांस्ड कोर्स करने व गुरुदेव से मिलने से पहले ही मैं पूरी तरह स्वस्थ हो गया था। इस समय मुझे कोई भी तकलीफ़ नहीं है। मैं जर्मनी जाकर बर्फ से ढकी पहाड़ी ढलानाें पर चल आया हँ। मैं, जिसे जीने के लिये मात्र छह महीने दिये गये थे, वह भी एक पेड़ के सूखे तने की तरह, अब पिछले तीन साल से एक सामान्य जीवन जी रहा हैं। यह सब केवल गुरु कृपा है, कुछ और नहीं।
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