December 29, 2008

वासन्थी

वासन्थी

       एक प्रतिष्ठित आय्यन्गर परिवार की वासन्थी, यू.एन.आई. के ब्यूरो प्रमुख श्री नारायणन की पत्नी हैं। बंगलौर आने से पहले वे कई वर्षों तक सिंगापुर में रह चुकी हैं।

 

क्लिप ग़ायब!

       कुछ वर्ष पहले मुझे ऑपरेषन के द्वारा अपना गर्भाषय निकलवाना पड़ा। जिस डॉक्टर ने ऑपरेषन किया था, उसने ऑपरेषन करने में मेरे गुर्दे को नुकसान पहुँचाया जिसके कारण सर्जरी के बाद भी मेरा दर्द गया नहीं बल्कि तीन महीने में और बढ़ गया। मैंने और अच्छे इलाज के लिये भारत आने का निष्चय किया। यहाँ पर जाँच से पता चला कि पहले वाले ऑपरेषन में डॉक्टर मेरे उदर क्षेत्र में एक छोटा क्लिप छोड़ कर भूल गये थे। यहाँ के डॉक्टरों ने फिर से सर्जरी कर के मेरे उदर क्षेत्र से वह क्लिप निकालने का निष्चय किया। मैंने सोचा कि गुरुजी के जर्मनी से लौटने के बाद उनके दर्षन करने के बाद ऑपरेषन करवाऊँगी।

       मैं सर्जरी के लिये अपने आप को मानसिक रूप से तैयार कर चुकी थी क्याेंकि दर्द बढ़ता ही जा रहा था। मैंने फ़ोन से गुरुजी से बात की और उन्होंने मुझे एक घ्यान करने को कहा। एक सप्ताह बाद, मैं ऑपरेषन से एक दिन पहले अपनी जाँच करवाने गई। अगले दिन गुरुजी लौट आये और अपनी रिपोर्ट लेने से पहले मैं आश्रम में पूजा में चली गई। जब मैं रिपोर्ट लेने पहुँची तो डॉक्टरों को आष्चर्यचकित पाया। वह क्लिप ग़ायब हो चुकी थ्ीा।

भक्ताें के आनन्द :

गुरुजी से मेरा संपर्क 1988 में हुआ। उस समय मैं कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रसित थी, जैसे रीढ़ में कष्ट, स्पॉनडिलाइटिस, साँस की तकलीफ़। हृदय पर इस सब का बहुत दबाव पड़ रहा था और डॉक्टरों ने कहा था कि इस हालत में मैं 6 महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाऊँगी। मैं अवसाद की स्थिति में थी और मेरे परिवार की भी चिंता बढ़ रही थी।

       मैं रोज़ श्री कृष्ण भगवान से प्रार्थना करती थी। एक दिन मैं बैठी और प्रार्थना की कि वे अब मुझे ले जायें- मैं 6 महीने भी जीना नहीं चाहती थी। जब मैं प्रार्थना कर रही थी तो मुझे एक दर्षन हुआ। ऐसा लगा जैसे बारिष हुई हो और एक लगभग दस साल का लड़का, सफ़ेद कपड़े पहने हुए, मेरी तरफ़ अपना हाथ बढ़ाये खड़ा था। मैं एक अंधेरे कुएँ में थी और उस बालक ने अपना हाथ बढ़ाकर मुझसे उसे पकड़ कर ऊपर आने को कहा। मैं उसका हाथ पकड़ने की नाकाम कोषिष कर रही थी, कि उसने दोनों हाथों से मुझे उठा कर ऊपर खींच लिया। मैं इतना हल्का और आनंदित महसूस कर रही थी कि मैंने सोचा कि ईष्वर मुझे यहाँ से ले गये हैं। एक या दो घंटे बाद मैंने अपनी ऑंखें खोली और अपने आप को इसी दुनिया में पाया।

       उस अनुभव के दो दिन के अंदर ही सिंगापुर में भारतीय उच्चायोग के एक कर्मचारी के घर पर एक सत्संग होना था जिसमें मुझे निमंत्रण मिला था। जब मैं वहाँ पहुँची तो ऐसा लगा कि वहाँ लोग किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे, किसी योगी की। मैं किसी से बात नहीं करना चाहती थी। दरवाजा खुला और अचानक गुरुदेव बाहर निकले और मैंने सोचा 'कल तो आप मेरे साथ थे, और आज आप यहाँ है।' मुझे अपने अंदर एक अजीब से आनन्द की अनुभूति हुई। मुझे लगा ''यही मेरे कृष्ण है।'' मैं उन्हें अपने बारे में बताना चाहती थी। मै चाहती थी की वे मेरे विषय में तथा मेरे अनुभव के विषय में जाने। सत्संग के दौरान वे किसी बात पर चर्चा कर रहे थे, मेरी तरफ देख कर बोले 'क्यों वासन्ती, समझ में आया ?'

       मेरे लिये बेसिक कोर्स काफ़ी कठिन और कष्टदायी था, पर कुछ समय बाद मुझे अच्छा लगने लगा और शरीर में कुछ बदलाव महसूस हुआ। मैंने अपनी पीठ से बेल्ट व गले से कॉलर हटा दिया जिसके कारण मैं ठीक से साँस लेने लगी। उसके बाद जल्दी ही मैं आश्रम गई और उन्नीस दिन वहाँ रही। गुरुजी की कृपा से मैं उस समय में बिलकुल ठीक हो गयी और बिलकुल नयी होकर लौटी। मैं तृप्त हो गई। मानसिक अथवा किसी भी अन्य स्तर पर, मैं पुरानी वाली वासन्ती नहीं थी। ये मेरे लिये सचमुच एक चमत्कार था।

       गुरुदेव से संपर्क में आने से पहले, शारीरिक स्तर पर मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पाती थी, बिलकुल भी नहीं। मैं बहुत अधिक भावुक स्वभाव की थी। मानसिक स्तर पर मुझे अपने संबंधियो के कारण काफी कठिन क्षणों का सामना करना पड़ा था। पर आश्रम में बिताये उन उन्नीस दिनों में मैं पूरी तरह बदल गयी थी। मेरे पति व परिवार वालों ने मुझमें आये इस बदलाव को देखा और फिर वे भी जुड़ गये।

       पहले मैं अपने में ही रहती थी और लोगाें से मिलना पसंद नहीं करती थी। आज मैं विष्व भर में कोर्स लेती हँ। बहुत आष्चर्य होता है यह देख कर कि अब मैं केैसे हर जगह घर जैसा ही अनुभव करती हँ और लोगों से मिलकर मुझे कितनी खुषी होती है। मैं जहाँ भी जाती हँ अपने आपको मार्गदर्ष्ाित व रक्षित अनुभव करती हँ।

       ऑस्टे्रलिया से, हाल ही में कोर्स लेते समय कई लोगों को गुरुजी की उपस्थिति का आभास हुआ। यह बस, आष्चर्यजनक था। पर्थ में एडवांस्ड कोर्स के बाद हम 6 लोग ंकिंग्स पार्क नाम के एक उद्यान में गये। पार्क से आप नीचे बहती हुई 'स्वान' (हंस) नदी की ओर देख सकते हैं। लगभग शाम के 6:30 बजे थे, नदी के ऊपर एक नीली रोषनी थी। हमने सोचा कि यह पानी के ऊपर एक प्रतिबिम्ब है, पर वह बढ़ती रही और हम इस रोषनी को आसमान में भरते हुए देख सकते थे। तभी पानी में हमें श्वेत वस्त्र पहने गुरुजी की छवि उभरती दिखाई दी। हम उनके केष व उनकी ऑंखे देख सकते थे और यह भी कि वह छवि पीछे मुड़ी और हमारी ओर देखने लगी। मन में एक विस्तार हुआ। वह एक गहरा अनुभव था।

       लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं 'उन्हें' किस रूप में देखती हँ, विष्णु, देवी, गणपति, या जीसस, या कुछ और ? मेरे हृदय में दिव्यता के इन सभी स्वरूपों के लिये प्रेम है। यह अभी शक्तियाँ गुरुजी के रूप में एक हो गयी हैं। और मज़े की बात यह है कि आप उन्हें छू सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं, उनकी अनुभूति भी कर सकते हैं । उनके परे कुछ भी नहीं है। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा चमत्कार है।

       जहाँ भी आप जायें, पथ आपके लिये बिछा हुआ है और जीवन बड़ा सरल हो जाता है। यह टीचर होने का एक बड़ा अनुभव है। यह उनके प्रेम की शक्ति है जो आस्था या किसी और भाव से बढ़कर है।

श्री श्री का ईराक के शांति कार्यक्रम में सम्बोधन


श्री श्री ने अपने ईराक शांति कार्यक्रम में कहा - दूसरों के आँसुओं को पोछना हम सभी का कर्तव्य है । 

 

बैंगलोर, दिसंबर २३, २००८.

 

आध्यात्मिक तथा मानवीय मूल्यों के प्रेरक तथा आर्ट ऑफ लिविंग के प्रणेता, परम पूज्य श्री श्री रविशंकर राजनैयिक तथा धार्मिक प्रमुखों के साथ अपने शांति कार्यक्रम के अंतर्गत तीन दिन की ईराक प्रवास पर हैं । वह युद्ध से क्षत इस देश में आर्ट ऑफ लिविंग द्वारा चलाए जा रहे मानवीय कार्यक्रमों का भी अवलोकन करेंगे ।

 

 बगदाद पहुँच कर श्री श्री ने शीया राजनैतिक परिषद के प्रमुख, माननीय हुसैन अल मुसावी से भेंट की । शिया प्रमुख ने श्री श्री से उनके द्वारा चलाए जा रहे, हितकारी कार्यक्रमों को जारी रखने तथा विषेशतः भारत से और अधिक चिकित्सकों को ईराक भेजने का आग्रह किया, जिनकी आज इराक में कमी है । जिसे श्री श्री ने स्वीकार किया ।  संस्था ने २००३ में युद्ध के तत्काल बाद ही बहुत से चिकित्सकों को भारत से भेजा था । श्री श्री ने कहा, ईराक के लोगों ने बहुत त्रासदी सही है । आर्ट ऑफ लिविंग संस्था, लोगों से तनाव कम करने/दूर करने के सहायता कार्यक्रमों को जारी रखेगी, तथा ईराक के लोगों को प्रशिक्षित करेगी जिससे वे सभी सशक्त बनें । हम सभी ईराकियों को आनंदित देखना चाहते हैं ।  

 

तत्पश्चात श्री श्री आर्ट ऑफ लिविंग महिला सशक्तिकरण प्रशिक्षण शिविर गए तथा महिलाओं को सिलाई आदि के प्रशिक्षण के लिए दी जा रही विभिन्न सुविधाओं का अवलोकन भी किया ।

 

शाम को उन्होंने ईराकी राष्ट्रीय काँग्रेस के सभापति तथा ईराक के पूर्व उपप्रधानमंत्री  माननीय अहमद चलाबी के आतिथ्य में आयोजित निजी रात्रिभोज में भाग लिया तथा ईराकी युवाओं की सहायता के लिए विभिन्न उपायों पर चर्चा की । श्री श्री कल महिलाओं तथा युवाओं के सशक्तिकरण के लिए विभिन्न कार्यक्रमों को कार्यान्वित करने के लिए, युवा मंत्रालय के साथ एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करेंगे ।

 

अपने तीन दिन के प्रवास में श्री श्री ईराक के उपप्रधानमंत्री, युवा, स्वाथ्य तथा न्याय मंत्री एवं प्रबुद्ध धार्मिक नेताओं से भी मिलेंगे । वे कर्बला भी जाएंगे जहाँ वे क्षेत्र के राज्यपाल से मिलेंगे ।


मई २००७ में अपनी ईराक यात्रा के दौरान श्री श्री प्रधान मंत्री के अतिथि के रूप में ग्रीन ज़ोन में रहे थे । इस बार उन्होंने रेड ज़ोन में रहने का निर्णय किया ताकि जनसामान्य आसानी से उन्हें मिल सकें ।

मूर्खता से परेशान मत हो

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 339

11 जनवरी, 2002

ऑस्टिन टेक्सेस

यूनाइटेड स्टेटस

 

मूर्खता से परेशान मत हो

 

सच में तुम्हें क्या बात परेशान करती है? वह मूर्खता है न जो तुम्हारे आस-पास हो रही है? मूर्खता से परेशान होना स्वयं में मूर्खता है। मूर्खता न ही ज्ञान पर हावी हो सकती है या ज्ञान को नष्ट कर सकती है और न ही वह अधिक समय तक टिकती है। जब तुम ज्ञान में नहीं रमे होते हो तब तम्हें मूर्खता परेशान करती है, और तुम्हारे सन्तुलन को बिगाड़ देती हैं।

 

जब तुम मूर्खता हो जाने के लिए थोड़ा स्थान छोड़ देते हो तब तुम उससे परेशान नहीं होते बल्कि मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाते हो। अन्यथा मूर्खतापूर्ण कार्यों से तुम्हारे भीतर क्रोध, तनाव या द्वेष पैदा हो जाता है। जब तुम यह जान जाते हो कि सत्य शाश्वत और अजेय है तब तुम मूर्खता को एक परिहास समझकर स्वीकार करते हैं और उससे विचलित नहीं होते।

 

जो लोग मूर्खता के विरुद्ध हैं या उससे चिढ़ते हैं वे मूर्खों के क्लब के सदस्य हैं। सावधान! अपना पंजीकरण नहीं करना।

December 26, 2008

आतंकवाद : इसके कारण और इसके उपाय

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 324

28 सितम्बर, 2001

यूरोप आश्रम बैड एन्टोगास्ट

जर्मनी

आतंकवाद : इसके कारण और इसके उपाय

ऐसा कार्य जिससे केवल विनाश हो और अपने तथा दूसरेऱ् दोनों के लिए दुःखदायी हो वही आतंकवाद होता है। ऐसे कार्य में लक्ष्य को पाने के लिये मानवीय मूल्यों को भुला दिया जाता है।

 

आतंकवाद की ओर ले जाने वाले कुछ कारक हैं -

  • लक्ष्य को प्राप्त करने के पीछे कुंठा और हताशा
  • भ्रमित भावनाएँ
  • अल्पदृष्टि और आवेशपूर्ण कृत्य
  • जन्नत और पुण्य मिलने की अप्रमाणिक धारणा पर विश्वास
  • बच्चों जैसी धारणा कि परमात्मा कुछ के पक्ष में हैं और बाकी लोगों पर नाराज़ रहते हैं, जो धारणा ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता का खनन करती है

 

आतंकवाद सभी में दहशत लाता है, गरीबी बढ़ाता है, पीड़ा को बढ़ाता है, जीवन को हानि पहुँचाता है, और इससे किसी को कोई भी प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिलता है। हल ढूँढने के बजाय आतंकवादी विध्वंस के द्वारा ही जवाब देने में विश्वास रखता है। यदि तुम बिना किसी हल के कोई निंदा करते हो तो जान लो कि यह निंदा भी उसी बीज से निकलती है जिससे आतंकवाद निकलता है।

 

हालांकि आतंकवादी में कुछ गुण ऐसे भी होते हैं जिनकी तुम सराहना कर सकते हो, जैसे निडरता, लक्ष्य पाने का दृढ़ संकल्प और बलिदान।

 

तुम उनसे कुछ ऐसी चीजें सीख लो जो तुम्हें कभी नहीं करनी चाहिए।  जीवन से अधिक महत्व कुछ विचारों और धारणाओँ को देना; जीवन के प्रति संकीर्ण दृष्टिकोण; और जीवन की विविधता का अनादर।

 

आतंकवाद के उपचार हैं -

  •  जीवन के प्रति विशाल दृष्टिकोण बनाना
  •  जीवन के मूल्य को धर्म, राष्ट्रीयता और जाति से अधिक देना

November 15, 2008

पाकिस्तान - श्री श्री रवि शंकर

पाकिस्तान में पैदा हो रही दुर्भाग्यपूर्ण  घटनाओं में हमारे लिए एक सीख निहित है.  बटवारे के बाद पाकिस्तान की जनसंख्या में पन्द्रह प्रतिशत हिंदू और दो प्रतिशत इसाई थे. आज अल्पसंख्यक कम हो कर एक प्रतिशत रह गए हैं. यदि पाकिस्तान ने विविधता को प्रोत्साहित  किया होता तो नई पीढ़ी बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक समाज में पली बड़ी होती तथा और अधिक  सहिष्णु होती.

 जनरल जिया उल हक ने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में योजनाबद्ध तरीके से इस बहुसांस्कृतिक धरोहर को मिटाकर इसे उग्र उन्मूलन वादी इस्लामी  नागरिक समाज एवं सेना में बदल दिया. समृद्ध हिंदू सिख एवं बौद्ध सांस्कृतिक धरोहर जो भारत और पाकिस्तान दोनों में समान रूप से थी - उसे भुला दिया गया. यदि उन्होंने पहचान  लिया होता कि उनके पूर्वज भी इन्हीं परम्पराओं के भागीदार थे और अगर उन्होंने इन मूल्यों  को अपनाया होता और जीवित रखा होता तो शायद इससे उन्हें और अधिक सहिष्णु एवं कम उग्र बनाया होता.  जब लोग अपनी परम्पराओं का त्याग कर देते हैं तो यह उन्हें और अधिक असहिष्णु और कट्टर बना देता है.

पाकिस्तान एक समय ज्ञान आर्जन की भूमि थी जहाँ तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय फले फूले और आयुर्वेद की लीपियाँ लिखी गयीं. भारत के विपरीत उसने अपनी बहु परम्परा को भुला दिया है. भारत में, जहाँ मुग़ल शासन के योगदान को पहचाना जा  रहा है और सम्मानित किया जा रहा  है, वहीं पाकिस्तानी विद्यार्थियों की पीढियाँ एक-संस्कृति  एवं एक-धर्म की शिक्षा पा रही जो उन्हें कट्टर बना रही है.  अपने स्वयं की परम्पराओं के प्रति अनभिज्ञता  की पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी पड़ी है.

जब कुछ साल पहले मैं पाकिस्तान गया था तब मैं बहुत से पत्रकारों से मिला, हजारों लोगों से बातचीत करी. मुझे हैरानी हुई की लोग  भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन तथा महात्मा गाँधी एवं उनके अहिंसा एवं क्षमा के नियमों के बारे में भी बहुत कम जानते हैं. युवा लोग जिन्हें मैं वहां मिला उन्हें आयुर्वेद , योग एवं सम्पन्न सांस्कृतिक और वैदिक परम्पराओं में से किसे की भी जानकारी बहुत कम  थी जो कभी दोनों देशों का सांझा ज्ञान था.

सहिष्णुता और दूसरी संस्कृति के प्रति सम्मान बहुत छोटी आयु से ही पोषित करने होते हैं. पाकिस्तान के बच्चे भक्ति आन्दोलन एवं अध्यात्मिक पुनर्जागरण के बारे में कुछ भी नहीं जानते जिसका की यह उपमहाद्वीप कभी साक्षी रहा है. महात्मा गाँधी के बारे में उन्हें सिर्फ़ इतना ही पता है की वह एक हिंदू संत एवं स्वतंत्रता  सेनानी थे. वास्तव में वे बहुत से सिख गुरु एवं संतों के बारे में भी बहुत कम जानते  हैं जो पाकिस्तान में घूमे और रहे थे. और यहाँ तक की वे लोग भी  जैसे की चाणक्य जिन्होंने अर्थशास्त्र लिखा और अपने जीवन का बहुत सा भाग तक्षशिला में ही जिया - उनके बारे में भी पाकिस्तान के बच्चों की जानकारी नहीं के बराबर ही है.

इतिहास के किताबों के साथ छेड़खानी कर के  शिक्षाविदों ने समाज को भीषण हानि पहुंचाई है. वह मासूम शक्ति जिसे वह नियंत्रित करते प् रतीत होते थे उसने अंत में लोगों में कठोर दृष्टिकोण उत्पन्न कर दिया.

अतिवादी समूह जो ज़्यादातर उन लोगों से बना  होता है जिन्हें ज्ञान के विस्तृत स्वरूप में शिक्षित नहीं किया गया होता वे बहुत संकीर्ण  एवं पूर्वाग्रही होते हैं. दुर्भाग्य से भारत में भी यह धारणाएं देखी जा सकती हैं.  विद्यालयों एवं शिक्षण संस्थाओं में वंदे मातरम  गाने के विरोध, गणेश उत्सव में भाग लेने के लिए एक कलाकार के नाम पर फतवा जारी करने  और वैलेंटाइन डे पर आपत्ति के रूप में.

इनका पूरा समाज के द्वारा एक स्वर में विरोध  होना चाहिए. एक सम्पूर्ण समाज सदैव समन्वय एवं शांति को प्रोत्साहित करेगा तथा अतिवाद  पर अंकुश लगायेगा. यह तो स्पष्ट है की नक्सलवादी और धार्मिक कट्टरपंथी जो भारत में  और सीमा पार हिंसा के संरक्षण करते हैं उनमे महात्मा गाँधी के लिए ज़रा भी सम्मान नहीं  है.

बटवारे के बाद से भारत में अल्पसंख्यकों की जनसंख्या  गुणांकों में बढ़ी है.  वहीं पाकिस्तान की अल्पसंख्यक  जनसंख्या एक प्रतिशत तक गिर गई है. पाकिस्तान की सबसे बड़ी गलती है अल्पसंख्यक समुदाय का समर्थन नहीं करना. पन्द्रह प्रतिशत हिन्दुओं ने देश को अधिक लोकतांत्रिक एवं मुक्त  समाज में बदल दिया होता. किंतु पाकिस्तान ने हिन्दुओं को या तो नष्ट कर दिया, परिवर्तित  कर दिया, या भगा दिया और इनकी जगह एक-धर्मी कट्टरपंथियों को स्थापित कर दिया. इसने  पाकिस्तान को अस्थिरता और रूढिवादिता की और अग्रसित किया.

भले ही भारत में धार्मिक तनाव देखा है,  फिर भी समाज अधिकतर सहिष्णु है. किसी एक धर्म की अतिवादिता उसी एक में सीमित नहीं रहती,  उसकी परछाईं दूसरों पर भी गिरती है जो म्यानमार, थाईलैंड एवं मलेशिया में बौद्ध भिक्षुओं के सड़क पर उतर आने से प्रमाणित होता है.

हिंदू अल्पसंख्यकों का सम्मान पाकिस्तान की इस्लामी पहचान के लिए खतरा नहीं होता, क्योंकि हिन्दुओं में धर्मान्तरण की कोई प्रथा नहीं है. ६० वर्ष पूर्व जन्में दो राष्ट्रों ने स्पष्ट रूप से भिन्न रस्ते अख्तियार करे. अभी भी देर नहीं हुई है कि पाकिस्तान के लोग यह पहचान लें कि कुछ ग़लत हो गया है एवं लोकतंत्र के साथ साथ बहुसांस्कृतिक, बहुधार्मिक, स्त्री-पुरूष समानता और शान्ति  एवं अहिंसा के प्रति सम्मान को भी वापस ले आयें. पाकिस्तान के पास अवसर है केवल तभी  तक जब वह गहरी नींद से जागे जो कुछ धर्मान्धों ने उसपे लाद दी है.

गुणगान

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 331

15 नवम्बर, 2001

बैंगलौर आश्रम

भारत

गुणगान 

 

गुणगान उस व्यक्ति के बड़प्पन को दर्शाता है जो प्रशंसा कर रहा है न कि  जिसकी प्रशंसा हो रही है। गुणगान इस बात का प्रतीक है कि अहंकार झीना हो गया है; अहंकार का सबसे अच्छा इलाज प्रशंसा करना है।  

प्रशंसा तीन प्रकार से कार्य करती है। 

  • यदि यह किसी और के लिए हो तब यह किसी अहंकारी व्यक्ति के लिए रूचिकर नहीं हो सकती। 
  • यदि यह तुम्हारे लिए हो तुम्हारा अहंकार बढ़ जाता है। 
  • यदि तुम किसी की  प्रशंसा करते हो तुम्हारा अहंकार विलीन हो जाता है और तुम विशाल हो जाते हो।

सब मिलकर - जब गुरुजी का गुणगान होता है; सभी आत्मविभोर हो जाते हैं  (हँसी)

 

प्रशंसा प्रशंसक की महानता का द्योतक है । और जो महान है उसका मन  प्रशंसा से नहीं हिलेगा। यानि किसी व्यक्ति की महानता की परीक्षा यह है कि चाहे जितनी भी प्रशंसा हो वह अडिग रहे।   

  • प्रशंसा की चाह अपरिपक्वता की निशानी है।
  • प्रशंसा से विमुखता संकीर्ण विचारधारा है ।
  • जीवन में प्रशंसा का अभाव नीरसता और उबानेवाला है।
  • एक स्वस्थ मन हमेशा दूसरों को उपर उठाने के लिए गुणगान करना पसंद करता है।
  • एक अस्वस्थ मन हर चीज को नीचे लाने की कोशिश करता है।
  • गुणगान विश्वास, उत्साह और संस्कृति की उच्च सोच को दर्शाता है।
  • प्रशंसा का अभाव स्वार्थी, भयभीत, संकीर्ण और संस्कृति विहीन समाज का प्रतीक है।

 

प्रशंसा मिलने पर अनासक्त होना, और प्रशंसा देते समय उदार होना यही एक ज्ञानी की पहचान है।

November 7, 2008

सत्ता की भूख

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 320

30 अगस्त, 2001

बैंगलौर आश्रम

भारत

लोग सत्ता के भूखे क्यों होते हैं?

लोग सत्ता के भूखे इसलिये होते हैं क्योंकि वे अपनी ओर ध्यान आकर्षित कराना चाहते हैं और अपनी पहचान बनाना चाहते हैं। जिस प्रकार धन साधन होता है उसी प्रकार सत्ता भी साधन है। किसी परिणाम को पाने के लिये जोश होता है। जो लोग सत्ता और धन को साधन न मानकर, साध्य मान लेते हैं वे जीवन जीते नहीं बल्कि केवल मौजूद् हैं। यदि तुमने यह न जाना कि तुम ही शक्ति हो अर्थात तुम ही ब्रह्मज्ञानी हो तब तुम में सत्ता की भूख होगी।

 

तुम अपने ऊपर ध्यान आकर्षित करवाना चाहोगे और अपनी पहचान बनाना चाहोगे जब--- तुम्हारे अन्दर कोई प्रतिभा नहीं होती, तुम्हारे अन्दर प्रेम या जोश नहीं होता, तुम मासूम और बच्चों जैसा सहज नहीं होते। यदि तुम्हारे अन्दर कोई प्रतिभा न हो, समाज में तुम्हारा कोई सार्थक योगदान न हो, जैसे कि एक कलाकार, वैज्ञानिक, आर्ट ऑफ लिविंग टीचर या स्वयंसेवक का होता है तब तुम सत्ता की आकांक्षा करोगे। यदि तुममें समाज में परिवर्तन लाने के लिये प्रेम या जोश नहीं है तब तुम सत्ता की अभिलाषा करोगे। यदि तुम एक बच्चे की तरह सहज नहीं हो, सम्पूर्ण विश्व के साथ तुम्हें अपनापन नहीं लगता हो, तब तुम्हें सत्ता की अभिलाषा होती है। जिन लोगों के पास इन चारों में से एक भी नहीं होता, जैसे कि कुछ राजनीतिज्ञ, वे सत्ता की आकांक्षा करते हैं।

 

सच्ची शक्ति, आत्मा की शक्ति होती है। वास्तविक आत्मविश्वास, बल, और खुशी का प्रस्फुरण आत्मा से ही होता है। जो यह जानता है और जिसके पास यह है वह शक्ति के लिये बिलकुल भी भूखा नहीं होता।

October 25, 2008

दिवाली ज्ञान के प्रकाश का उत्सव

दिवाली ज्ञान के प्रकाश का उत्सव - श्री श्री रवि शंकर

दिवाली, जिसे सम्पूर्ण विश्व में प्रकाश के त्योहार के रूप में जाना जाता है, बुराई पर अच्छाई की, अन्धकार पर प्रकाश की तथा अज्ञान पर ज्ञान की  विजय का त्योहार है। आज के दिन घरों में रोशनी न केवल सजावट के लिये होती है, किंतु यह जीवन के अथाह सत्य को भी अभिव्यक्त करती है। प्रकाश अन्धकार को मिटा देता है, और जब ज्ञान के प्रकाश से आपके अंदर का अंधकार मिट जाता है, आप में अच्छाई बुराई पर विजय प्राप्त कर लेती है।

वैसे तो इस उत्सव से संबंधित बहुत सी गाथाएं हैं, दिवाली मुख्यत: प्रत्येक ह्रदय में ज्ञान के प्रकाश को प्रज्जवलित करने के लिये मनायी जाती है, प्रत्येक घर में जीवन, प्रत्येक मुख पर मुस्कान लाने के लिये मनायी जाती है। दिवाली शब्द दीपावली का लघु रूप है, जिसका शाब्दिक अर्थ है प्रकाश की पंक्ति।  जीवन के बहुत से पहलु तथा स्तर होते हैं। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप उन सभी पर प्रकाश डालें क्योंकि यदि आपके जीवन का एक भी पहलु अंधकारमय होगा तो, आपका जीवन कभी भी पूर्णत: अभिव्यक्त नहीं हो सकेगा।  इसलिये दिवाली में दीपों की पंक्तियाँ प्रज्जवलित की जाती हैं कि आप को ध्यान रहे कि आपके जीवन के प्रत्येक पहलु को आपके ध्यान की तथा ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता है। 

आपके द्वारा प्रज्ज्वलित प्रत्येक दीप, सद्गुण का प्रतीक है। प्रत्येक मनुष्य में सद्गुण होते हैं। कुछ में धैर्य होता है, कुछ में प्रेम, शक्ति, उदारता, अन्य में लोगों को संगठित करने की क्षमता होती है। आप में स्थित अप्रकट मूल्य दिये के समान हैं। जैसे ही वह प्रज्जवलित हो जाएँ, जागृत हो जाएँ, दिवाली है। केवल एक ही दीप जला कर संतुष्ट न हों; हज़ार दीप प्रज्जवलित करें। यदि आप में सेवा भाव है, केवल उससे ही संतुष्ट न हों, अपने में ज्ञान का दीप जलाएँ, ज्ञान अर्जित करें। अपने अस्तित्व के सभी पहलुओं को प्रकाशित करें।

दिवाली का एक और गूढ़ रहस्य पटाखों के फूटने में है। जीवन में आप कई बार पटाखों के समान होते हैं, अपनी दबी हुई भावनाओं, हताशा तथा क्रोध के साथ फूट पड़ने के लिये तैयार। जब आप अपने राग, द्वेष, घृणा को दबाए रखते हैं वह फूट पड़ने की सीमा पर पहुँच जाता है। पटाखे फोड़ने की क्रिया का प्रयोग हमारे पूर्वजों द्वारा, लोगों की बाधित भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिये, एक मनोवैज्ञानिक अभ्यास के रूप में किया गया। जब आप बाहर विस्फोट देखते हैं तो आप अंदर भी वैसी संवेदनाओं का अनुभव करते हैं। विस्फोट के साथ बहुत सा प्रकाश निकलता है। जब आप अपनी दबी हुई भावनाओं से मुक्त होते हैं तब आप खाली हो जाते हैं तथा आप में ज्ञान के प्रकाश का उदय होता है।

ज्ञान की सभी जगह आवश्यकता है। यदि परिवार का एक भी व्यक्ति अंधकार में है, आप खुश नहीं रह सकते। अत: आप को अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य में ज्ञान का प्रकाश स्थापित करना होगा। इसे समाज के प्रत्येक सदस्य तक ले जाएँ, पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाएँ।

जब सच्चा ज्ञान उदित होता है, उत्सव होता है। अधिकतर उत्सव में हम अपनी सजगता अथवा एकाग्रता खो देते हैं। उत्सव में सजगता बनाए रखने के लिये, हमारे ऋषियों नें प्रत्येक उत्सव को पवित्रता तथा पूजा विधियों से जोड़ दिया है। इसलिये दिवाली भी पूजा का समय है। दिवाली का आधात्मिक पहलु, उत्सव में गाम्भीर्य लाता है। प्रत्येक उत्सव में आध्यात्म होना चाहिये क्योंकि आध्यात्म के बिना उत्सव छिछला होता है।

उत्सव चेतना का स्वभाव है तथा उत्सव का प्रत्येक कारण अच्छा है। उत्सव में आप केवल नाचे गाएं नहीं, बल्कि स्वयं को ज्ञान के प्रति भी सजग रखें। जो ज्ञान में नहीं हैं उनके लिये वर्ष में एक बार ही दिवाली आती है, किंतु जो ज्ञानी हैं उनके लिये प्रत्येक दिन, प्रतिक्षण उत्सव है। ज्ञानी बनें तथा अपने जीवन के प्रत्येक क्षण, प्रत्येक दिन को उत्सव बना लें।  

October 24, 2008

प्रेम और अधिकार

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 318
16 अगस्त, 2001
बैंगलौर आश्रम
भारत

प्रेम और अधिकार
प्रेम और अधिकार एक दूसरे के पूर्णतः विपरीत मूल्य हैं फिर भी वे एक साथ विद्यमान रहते हैं। चेतना जितनी अधिक स्थूल होती है अधिकार उतना ही अधिक प्रबल दिखता है। चेतना जितनी अधिक परिष्कृत और सूक्ष्म होती है अधिकार के प्रयोग की उतनी ही कम आवश्यकता होती है। जब तुम स्थूल होते हो, तुम अधिकार की माँग करते हो, और अधिकार माँगने से प्रेम कम हो जाता है। अधिकार जमाना प्रेम और आत्मविश्वास की कमी का द्योतक है। अधिकार की भावना जितनी प्रबल होगी तुम उतने ही कम संवेदनशील और प्रभावशाली होगे। एक समझदार व्यक्ति कभी भी अपने अधिकार की माँग नहीं करेगा... बल्कि अपने अधिकार को पहले से मान कर चलेगा। (हँसी) सबसे प्रभावशाली सी.ई.ओ. अपने अधिकार को कभी महसूस नहीं होने देते क्योंकि अधिकार से अंतरप्रेरणा कभी भी प्रस्फुटित नहीं होती।
तुम्हारे बॉस के मुकाबले एक ईमानदार नौकर का तुम्हारे ऊपर अधिकार कहीं अधिक होता है, है न? एक शिषु का अपनी माँ के ऊपर पूर्ण अधिकार होता है। इसी प्रकार एक भक्त का परमात्मा के ऊपर पूरा अधिकार होता है, हालांकि वह कभी भी उसका प्रयोग नहीं करता।
अत: तुम जितने अधिक सूक्ष्म होगे उतना ही ज्यादा अधिकार तुम्हें प्राप्त होगा। प्रेम जितना अधिक होगा अधिकार उतना ही सूक्ष्म होगा। प्रेम जितना कम होगा अधिकार उतना ही अधिक प्रबल होगा।

दो परिप्रेक्ष्य से गुरु

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 317

9 अगस्त, 2001

यूरोप आश्रम, बैड एन्टोगास्ट

जर्मनी

 

दो परिप्रेक्ष्य से गुरु

पूर्वी संस्कृति के देशों में, गुरु का होना एक गर्व का विषय माना जाता है। गुरु प्रेम और सुरक्षा के प्रतीक हैं और एक बड़ी सम्पत्ति के द्योतक हैं। गुरु का सानिध्य अपने आत्म तत्व के साथ रहने के तुल्य माना जाता है। जिनके पास गुरु नहीं हैं उनको निम्न दृष्टि से देखा जाता था और उन्हें अनाथ, दरिद्र और अभागा समझा जाता था। संस्कृत में अनाथ माने जिसका नाथ न हो। जिनके गुरु नहीं होते थे उन्हें अनाथ कहा जाता था, न कि उन्हें जिनके माता-पिता नहीं होते।

 

परन्तु पश्चिम संस्कृति के देशों में मास्टर का होना शर्म की बात है और दुर्बलता का प्रतीक है, क्योंकि वे लोगों को अपने आधीन दास बनाने के लिये जाने जाते हैं।

 

पूर्वी संस्कृति में गुरू का होना गर्व समझा जाता है और जीवन के हरेक पहलु में गुरु हैं - धर्म के लिए धर्मगुरु, कुल के लिए कुलगुरु,  राज्य के लिए राजगुरु, किसी विषय के अध्ययन के लिए विद्यागुरुऔर आध्यात्म के लिए सद्गुरु. पूर्वी संस्कृति में गुरु आपको शक्तिशाली महसूस कराते हैं; जबकि पश्चिमी संस्कृति में मास्टर आपको कमज़ोर बनाते हैं। पूर्वी संस्कृति में एक अपनेपन की गहरी भावना होती है जो व्यक्ति को अपनी सीमित पहचान घुलाकर अनन्त के साथ एक होने के सक्षम बनाती है। परन्तु पश्चिमी संस्कृति में गुरु एक प्रेरक और प्रतिस्पर्धा बढ़ाने वाला समझा जाता है।

कौन किसको खुश कर रहा है?

साप्ताहिक ज्ञानपत्र 316

2 अगस्त, 2001

यूरोप आश्रम, बाद एन्टोगास्ट

जर्मनी

 

कौन किसको खुश कर रहा है?

परमात्मा ने इस संसार और मनुष्य की संरचना बड़ी विविधता और अच्छी चीज़ों के साथ करी है।  मनुष्य के मनोरंजन के लिए और उसे खुश करने के लिए परमात्मा ने अनेक प्रकार की सब्जियाँ, सुगन्ध, फूल और काँटे, राक्षस और भयानक दृश्य बनाए हैं। 

परन्तु मनुष्य तो और भी अधिक अवसादग्रस्त होता गया। तब फिर परमात्मा को सख्त होना पड़ा और मनुष्य ईश्वर को खुश करने में जुट गया। और इस तरह ईश्वर को प्रसन्न रखने में मनुष्य व्यस्त हो गया, और इसमें ज्यादा खुश रहने लगा क्योंकि उसके पास चिन्ता और तनाव के लिये समय ही नहीं बचा। 

इसलिये, अगर  तुम्हारे पास कोई खुश रखने के लिये है तब तुम सतर्क रहते हो और् तुम अधिक खुशी महसूस करते हो। परन्तु यदि तुम्हारा ध्येय केवल अपने आपको खुश रखना हो तब निश्चय ही तुम अवसादग्रस्त हो जाओगे। आनन्दभोग बस और अधिक लालसा को ले आता है। परन्तु समस्या यही है कि हम सुखों के द्वारा तृप्त होने की चेष्टा करते हैं। सच्ची तृप्ति केवल सेवा के माध्यम से ही मिल सकती है।