डॉ0 कैथरीन कोमाण्डा, पी.एच.डी., संयुक्त राज्य अमेरिका में विश्व धर्मों के अध्ययन की प्रोफ़ेसर है।
मेरी माँ हमेशा मुझे बताया करती थी कि बचपन से ही मुझ पर एक फ़रिश्ते की कृपा दृष्टि है। मैं उनसे अक्सर वह कहानी सुनाने को कहा करती थी, जिसमें यह 'फ़रिश्ता' उनसे मिलने आया और उनका सारा भय हर ले गया।
मेरी माँ के लिये उनकी गर्भावस्था बहुत कष्टदायी थी। उस दौरान वे अधिकतर बीमार ही रही, और अंत में उनके साथ एक कार दुर्घटना हो जाने के कारण उन्हें बिस्तर से उठने तक को मना कर दिया गया। डॉक्टरों को डर था कि शायद मैं जीवित इस दुनिया में न आ सकूँ। मेरी माँ भय व चिंता के कारण ठीक से सो भी नहीं पाती थीं। एक रात उनका कमरा एक सुनहरे प्रकाश से भर गया और एक दिव्य आकृति उनके सामने प्रकट हुई। माँ बताती थी कि उन्होंने सफ़ेद रंग के ढीले वस्त्र पहने हुए थे, उनके बाल लंबे और काले थे, और उनके एक दाढ़ी भी थी।
पर माँ के अनुसार उस दिव्य पुरूष में जो सबसे मनोहर थी वह थी उनकी ऑंखें। माँ ने कभी भी इतनी सुंदर ऑंखें नहीं देखी थीं। वे बिना कुछ कहे ही, उन ऑंखों से मानो सारी सृष्टि का प्रेम माँ पर न्यौछावर कर गए। प्रेम की उन लहरो ने माँ का सारा भय धो दिया। माँ हमेशा कहती थीं कि उन्हें लगता था कि वे दिव्य पुरुष शायद जीसस थे, पर वे जो भी थे, माँ उन्हें कभी भूल नहीं पायी और उस घटना के बाद, आज तक, उन्हें जीवन में किसी भी बात का भय न रहा।
जब मैं उन्नीस वर्ष की थी और कॉलेज में पढ़ती थी, तब मैं गुरुजी से मिली। मेरी माँ सोचने लगी कि शायद मैं किसी विचित्र धार्मिक पंथ में शामिल हो गयी हँ और वे मुझको लेकर काफ़ी चिंतित रहती थीं। जब मैं अपनी साधना करती थी तो उन्हें लगता था कि मेरे कमरे से अजीब सी आवाज़ें आ रही हैं और वे दूर से, मेरे कमरे मे रखी हुई गुरुजी की फोटो को देखतीं और सोच में पड़ जातीं कि, पता नहीं यह कौन संत हैं। एक समय आया, उन्हें कैंसर हो गया, तब उन्होंने मुझसे जानना चाहा कि मेरे गुरु कौन हैं, क्या सिखाते हैं और कैसे दिखते हैं। जब मैंने उन्हें उनका चित्र दिखाया तो वे रो पड़ीं। मैंने उनसे पूछा क्या बात है तो उन्होंने उत्तर दिया, ''यह वहीं दिव्य पुरुष हैं जो तुम्हारे पैदा होने से एक रात पहले मेरे पास आये थे।''
रहस्यमय स्थल
कई हर्ष पूर्ण वर्ष बीत गये। एक समय ऐसा आया जब मुझे लगने लगा कि संस्था तो बहुत बड़ी हो गयी है, पंरतु साथ ही साथ संगठन औपचारिक होता जा रहा है जिससे व्यक्तियों के बीच के घनिष्ठ संबंध कम हो रहे हैं। मैं अपने को अलग-थलग महसूस करने लगी। मैं हमेशा शिकायतें करती रहती थी।
उस साल, गर्मी में, गुरुजी कैलिफ़ोर्निया में थे, और बर्कले में सार्वजनिक सभा करने वाले थे। अपनी नकारात्मक भावनाओं के चलते मैं वहाँ गुरुजी से मिलने भी नहीं गई। फिर मैंने सुना कि गुरुजी सैन जोज़ जाने वाले थे। मैंने अपने आप से कहा कि मैं उनसे मिलने नहीं जाऊँगी। आश्चर्यजनक रूप से, अगली सुबह बिना कुछ सोचे-समझे, मैं बस गाड़ी में बैठी और चल पड़ी। मैंने लंबा रास्ता लिया और खिली धूप, समुद्र की लहरो व पहाड़ियों का आनन्द लेती हुई वहाँ पहुँची। शहर में दाखिल होते ही मुझे एकदम से एहसास हुआ कि मैं तो यह भी नहीं जानती की गुरुजी कब और कहाँ सभा करने वाले हैं। न ही मेरे पास कोई फ़ोन नंबर था। मेरे वहाँ ट्रैफ़िक भी बहुत थी और मुझे चिंता होने लगी कि गुरुजी को कहाँ ढूंढूँ। मेरे अंदर सहज ही एक प्रार्थना ने जन्म लिया, तभी एक कार मेरे बगल से निकली जिसमें भारतीय मूल के लोग सवार थे। मैंने सोचा शायद ये लोग मुझे किसी भारतीय दुकान का पता बता दें जहाँ गुरुजी के कार्यक्रमाें का पोस्टर या कार्यक्रम का समय लगा हो। जैसे ही मैंने यह सोचा, वैसे ही अचानक मुझे उनके डैश बोर्ड पर सूर्य की किरणों से चमकता हुआ गुरुजी का चित्र दिखाई पड़ा। बस, मैंने अपनी कार उन लोगों के पीछे लगा दी और उसके बाद ही मस्ती शुरू हो गयी। मैंने देखा कि हाईवे पर कई गाड़ियाँ मुझे हटाकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं। तब मैंने थोड़ा ध्यान से देखा कि यह जाँबाज़ ड्राईवर तो हमारे अपने भक्तगण हैं (जब गुरुजी कार से यात्रा करते है, तो बाकी लोगों में गुरुजी की गाड़ी के साथ अपनी गाड़ी लगाने की होड़ लगती है।) मैं अनजाने में ही उस होड़ में शामिल हो गयी थी। मुझे लगा कि जिस कार के पीछे मैं हँ क्या उसी में गुरुजी हैं ? वह कार हाईवे छोडकर घने जंगल में बने एक कच्चे रास्ते पर जाने लगी और मैं भी पीछे चली गई। जब काफ़िला रुका तब मैं अपनी गाड़ी से निकल कर पेड़ो के बीच भागी और एक खुली जगह पर आ कर रुक गई। गुरुजी वहाँ एक तख्ती के नीचे खड़े थे जिस पर लिखा था 'गुप्त स्थल' (द मिस्ट्री स्पॉट)। वे एक बड़ी सी मुस्कान के साथ बोले ''तुम सड़क पर मिली थी'' मैंने आश्चर्य से पूछा ''आपको तो उत्तर से दक्षिण जाना था और मुझे आप दक्षिण से उत्तर जाते हुए मिले'' गुरुजी हँस कर बोले कुछ बातें बस रहस्य ही है। बाद में मुझे पता चला कि उस दिन सुबह उठ कर गुरुजी ने अपना पहले निष्चित किया रास्ता बदल दिया था। रास्ते में उन्होंने एक गलत मोड़ ले लिया था और फिर उन्हें हाईवे पर वापस लौटने के लिये दक्षिण से उत्तर की ओर आना पड़ा। वहीं पर मेरी कार 'अनंत' से टकराई और उसके बाद मैंनें कभी भी शिकायत नहीं की।
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