September 17, 2008

आवाज़ जो आई नहीं - श्री प्रकाश एन

श्री श्री प्रकाश एन, त्रिवेन्द्रम के एक कम्प्यूटर व्यवसायी है। आजकल यह सॉफ्टवेयर निर्यातक हैं इसके पूर्व के.एल.एम (रॉयल डच एयरलान्इस में) सूचना प्रबंधक रह चुके हैं।

केरल के वेनद में आयोजित दिव्य सत्संग में भाग लेने व गुरुजी से मिलने हम चारों सड़क मार्ग से गये। कार्यक्रम के अंतिम दिन हम वहाँ से लौटने के लिये सुबह ही चले, क्योंकि यात्रा तेरह घंटे की थी। जाने से पहले गुरुजी के दर्शन करने की इच्छा से हम लोग प्रात: काल लगभग 6:50 पर उनके कुटीर पहुँच गये। दरवाजा बंद था। हम पास ही खड़े प्रतीक्षा करने लगे। तभी मेरी छोटी बेटी निवेदिता जोर से बोली '' देखो - गुरुजी '' गुरुजी हमारे पीछे खड़े थे। उन्होंने पूछा ''क्या तुम वापस जा रहे हो ? गाड़ी सावधानी से चलाना'' यह कहकर वे वहाँ से ऐसे निकल गये मानो ग़ायब हो गये हों।

सफ़र करते करीब नौ घंटे बीत चुके थे। सूरज आम के वृक्षों को छूता हुआ डूब रहा था। मैं अपने विचारों में खोया हुआ था। इस मनमोहक दृश्य के बीच में, एक जुलूस हमारी ओर बढ़ रहा था। हमारी गाड़ी को एक गली की ओर मोड़ दिया गया। उस गली में भी लोग भरे हुए थे। भीड़ उत्तेजित होने लगी। हमारी गाड़ी उस जाम में सबसे आगे थी। मेरे मन ने कहा कि मैं वहीं रुक जाऊँ पर मैं गाड़ी को आगे बढ़ाता चला गया। तभी एक युवक एक बड़ा सा डंडा लेकर गाड़ी के सामने आकर खड़ा हो गया। उसने डंडे को बोनट पर ज़ोर से मारा। पर कोई आवाज़ नहीं हुई, डंडे ने गाड़ी को छुआ तक नही। भीड़ अचानक साफ़ हो गई और मैंने गाड़ी का एक्सेलेरेटर दबाया और आगे बढ़ गया।

यात्रा
मुझे नहीं पता, ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने मेरी तरह अति दरिद्रता से सम्पन्नता का अनुभव किया है। मैं एक मेहनती, किंतु विद्रोही, अभिमानी व नास्तिक स्वभाव का व्यक्ति था।

मैंने स्वामी चिन्मयानन्द, भगवान रजनीश, दीपक चोपड़ा इत्यादि को अपने खाली समय में सुनने व पढ़ने की चेष्टा की। दिसम्बर 1998 में मुझे 'बैंग ऑन द डोर' जो मेरी पत्नी चिन्मयी ने खरीदी थी, पढ़ने का अवसर मिला। इस पुस्तक से मैं बहुत प्रभवित हुआ और मुझे लगा कि इसका लेखक बहुत बुध्दिमान व ज्ञानी है।

अगले सप्ताह, जनवरी 1999 में मैंने समाचार पत्र में एक छोटा सा विज्ञापन देखा कि ''आर्ट ऑफ लिविंग कोर्स आज से।'' मैंने पत्नी से कहा कि मैं यह कोर्स अवष्य करूंगा। मैं जानना चाहता था कि इतना विलक्षण व बुध्दिमान व्यक्ति मुझे जीने की कला कैसे सिखायेगा ? मैं जब एयरलाइन्स में था तब मैंने कई व्यक्तित्व विकास के कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था। लेकिन इस 6 दिन के कोर्स का हर एक दिन अद्भुत था। कोर्स ने मेरे जीवन में एक स्थायी बदलाव किया व जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया। मैं 'सामान्यत: क्रोधित और तनावग्रस्त' न रहकर 'सामान्यत: प्रसन्न' रहने लगा।

कोर्स करने के तीन सप्ताह के भीतर मैं आश्रम में एडवांस्ड कोर्स करने पहुँच गया। वहाँ गुरुजी भी थे। मैं उनसे मिला और पहली बार मुझे जो अनुभव हुआ उसे शब्दों में 'उन्मुक्त प्रेम' ही कहा जा सकता है। उनकी सादगी, निर्दोष भाव, प्रेम, सब कुछ शब्दों के परे था। मैंने घर लौटकर ऐसा अनुभव किया, मानो मैं स्वर्ग से लौट कर आया हूँ। लौटने के बाद मेरे व्यापार में व्रिद्धि होने लगी। मुझे अपने परिवार (मेरी पत्नी व दो बेटियॉ, गायत्री और निवेदिता ) के साथ बिताने के लिये समय मिलने लगा और, शादी के 18 वर्षो के बाद घर स्वर्ग बन गया।

मैं अगस्त 1999 में बेसिक कोर्स (अब पार्ट-1 कोर्स) का प्रशिक्षक बन गया और अब मैं गुरुदेव का निमित्ता हूँ। 6 दिन में उनकी कृपा से कैसे कोर्स में आये हुए लोगों का दु:ख दूर हो जाता है, यह देखकर आश्चर्य होता है। और जैसे-जैसे मैं शिविरों में अधिक से अधिक समय देता जाता हँ, मैं एक विचित्र बात का अनुभव करता हँ - मेरे व्यवसाय में व्रिद्धि, तथा मेरे कार्यभार में अत्याधिक कमी। मेरी ज़िम्मेदारी श्री श्री ने ले ली है। जीवन ज्वरता व व्यर्थ चेष्टाओं से मुक्त हो गया है।

स्मृति के खेल
दिसम्बर 1999 में मैंने गुरुजी से कहा कि मुझसे सहजता से घ्यान नहीं होता। कई महीने बीत गये, और मैं इस बात को भूल गया। एक साल के बाद, मैं उनसे कोट्टायम के सत्संग में मिला। जब मैं उनके कमरे से बाहर जा रहा था, उन्होंने मुझे रुकने का इशारा किया और रघु जी मेरे लिये गुरुदेव के घ्यान की सी.डी. लेकर आये। जो व्यक्ति हर सप्ताह हज़ारो लोगों से मिलते हैं, जो विश्व भर का भ्रमण करते हैं- वे हम सबकी छोटी-छोटी आवश्यकताओं का कितना ख़याल रखते हैं।

ऐसा माना जाता है कि अध्यात्मपथ पर अग्रसर होने के लिये हमें अपने दायित्वों से मुँह मोड़ना पड़ता है। परंतु मैं तो संसार में रहते हुए तथा अपने सभी दायित्वों का निर्वाह करते हुए श्री वृध्दि, स्वास्थ्य वृध्दि, आनन्द वृध्दि या कहें तो सर्व समृध्दि का प्रतिपल अनुभव कर रहा हँ।